ग्रन्थ :
(अब चोरी न करने का उपदेश करते हैं) अदत्तस्य परस्वस्य ग्रहणं स्तेयमुच्यते ।
पानी, घास वगैरह जो वस्तु सब के भोगने के लिए हैं उनके सिवा शेष सब विना दी हुई परवस्तुओं को ले लेना चोरी है ॥364॥सर्वभोग्यात्तदन्यत्र भावात्तोयतृणादितः ॥364॥ शातीनामत्यये वित्तमदत्तमपि संमतम् ।
यदि कोई ऐसे कुटुम्बी मर जायें जिनका उत्तराधिकार हमें प्राप्त है तो उनका धन बिना दिये हुए भी लिया जा सकता है। किन्तु यदि वह जीवित हों तो उनकी आज्ञा से ही उनका धन लिया जा सकता है। उनकी जीवित अवस्था में ही उनसे पूछे बिना उनका धन ले लेने से अचौर्याणुव्रत की क्षति होती है ॥365॥जीवतां तु निदेशेन व्रतक्षतिरतोऽन्यथा ॥365॥ संक्लेशाभिनिवेशेन प्रवृत्तिर्यत्र जायते।
अपना धन हो या दूसरों का हो, जिसमें चोरी के भाव से प्रवृत्ति की जाती है तो वह सब चोरी ही समझना चाहिए॥366॥तत्सर्व रायि विशेयं स्तेयं स्वान्यजनाश्रये ॥366॥ रिक्थं निधिनिधानोत्थं न राक्षोऽन्यस्य युज्यते।
जमीन वगैरह में गड़ा हुआ धन राजा का होता है किसी दूसरे का नहीं । क्योंकि जिस धन का कोई स्वामी नहीं है उसका स्वामी राजा होता है ॥367॥यत्स्वस्यास्वामिकस्येह दायादो मेदिनीपतिः ॥367॥ आत्मार्जितमपि द्रव्यं द्वापरायान्यथा भवेत् ।
अपने द्वारा उपार्जित द्रव्य में भी यदि संशय हो जाये कि यह मेरा है या दूसरे का, तो वह द्रव्य ग्रहण करने के अयोग्य है अतः व्रती को अपने कुटुम्ब के सिवा दूसरों का धन नहीं लेना चाहिए ॥368॥निजान्धयादतोऽन्यस्य व्रती स्वं परिवर्जयेत् ॥368॥ मन्दिरे पदिरे नीरे कान्तारे धरणीधरे ।
अतः मकान में, मार्ग में, पानी में , जंगल में या पहाड़ में रखा हुआ दूसरों का धन अचौर्याणुव्रती को नहीं लेना चाहिए॥369॥तन्नान्यदीयमादेयं स्वापतेयं व्रताश्रयैः ॥369॥ पौतर्वन्यूनताधिक्ये स्तेनकर्म ततो ग्रेहः ।
बाँट तराजू का कमती-बढ़ती रखना, चोरी का उपाय बतलाना, चोरी का माल खरीदना, देश में युद्ध छिड़ जाने पर पदार्थों का संग्रह कर रखना, ये सब अचौर्याणुव्रत के दोष हैं ॥370॥विग्रहे संग्रहोऽर्थस्यास्तेयस्यैते निवर्तकाः ॥370॥ रत्नरत्लाङ्गरत्नस्त्रीरनाम्बरविभूतयः।
जो निर्दोष अचौर्याणुव्रत को पालते हैं उनको रत्न, सोना, उत्तम स्त्री, उत्तम वस्त्र आदि विभूति स्वयं प्राप्त होती है, उसके लिए उन्हें चिन्ता नहीं करनी पड़ती ॥371॥भवन्त्यचिन्तितास्तेषामस्तेयं येषु निर्मलम् ॥371॥ परप्रमोषतोषेण तृष्णाकृष्णधियां नृणाम् ।
जो मनुष्य दूसरों की वस्तुओं को चुराकर प्रसन्न होते हैं, तृष्णा से कलुषित बुद्धि वाले उन मनुष्यों में इसी जन्म में अनेक बुराइयाँ पैदा हो जाती हैं और दूसरे जन्म में भी उनकी दुर्गति होती है ॥372॥अत्रैव दोषसंभूतिः परत्रैव च दुर्गतिः ॥372॥ चोरी में आसक्त श्रीभृति पुरोहित की कथा श्रूयतामत्र स्तेयफलस्योपाख्यानम्-प्रयागदेशेषु निवासविलासवारलाप्रलापवाचालितविलासिनीनूपुरे सिंहपुरे समस्तसमुद्रमुद्रितमेदिनीप्रसाधनसेनः पराक्रमेण सिंह इव सिंहसेनो नाम नृपतिः। तस्य निखिलभुवनजनस्तवनोचितवृत्ता रामदत्ता नामाग्रमहिषी। सुतौ चानयोराश्चर्यसौन्दयौदार्यपरितोषितानिमिषेन्द्रौ सिंहचन्द्र-पूर्णचन्द्रौ नाम । निःशेषशास्त्रविशारदमतिः श्रीभूतिरस्य पुरोहितः सूनृताधिकधिषणतया सत्यघोषापरनामधेयः । धर्मपत्नी चास्य पतिहितैकचित्ता श्रीदत्ता नामाभूत् । स किल श्रीभूतिर्विश्वासरसनिर्विघ्नतया परोपकारनिघ्नतया च विभक्तानेकापवरकरचनाशालिनीभिर्महाभाण्डवाहिनीभिर्गोशालोपशल्याभिः कुल्याभिः समन्वितमतिसुलभजलयवसेन्धनप्रचारं भण्डनारम्भोद्भटर्भटीरपेटकपक्षरक्षासारं गोरुतप्रमाणं वप्रपाकारप्रतोलिपरिखापरिसूत्रितत्राणं प्रपासत्रसभासनाथवीथिनिवेशनं पण्यपुटभेदनं विदुरितकितवविटविदूषकपीठमर्दावस्थानं पेण्ठास्थानं विनिर्माप्य नानादिग्देशोपसर्पणयुजां वणिजां "प्रशान्तशुल्कभाटकभागहारव्यवहारमचीकरत् । ___अत्रान्तरे पमिनीखेटपट्टनविनिविष्टावासतन्त्रस्य सुदत्ताकलनचरित्रपवित्रितगोत्रस्य वणिक्पतेः सुमित्रस्य निजसनाभिजनाम्भोजभानुः सूनुर्भद्रमित्रो नाम समानधनचारित्रैर्वणिकपुत्रैः "सत्रं "वहित्रयात्रायां यियासुः - चोरी के फल के सम्बन्ध में एक कथा है उसे सुनें प्रयागदेश के सिंहपुर नामक नगर में सिंह की तरह पराक्रमशाली सिंहसेन नाम का राजा राज्य करता था। उसकी पटरानी का नाम रामदत्ता था। उनके आश्चर्यजनक सौन्दर्य और उदारता से देवों के इन्द्र को भी सन्तुष्ट करने वाले सिंहचन्द्र और पूर्णचन्द्र नाम के दो पुत्र थे। समस्त शास्त्रों में कुशल श्रीभूति राजा का पुरोहित था। सत्य की ओर अधिक रुझान होने के कारण उसका नाम सत्यघोष पड़ गया था। उसकी धर्मपत्नी का नाम श्रीदत्ता था। वह सदा पति का हित चाहती थी। श्रीभूति पुरोहित का सब विश्वास करते थे और वह सदा परोपकारमें लगा रहता था । उसने एक बाजार बनवाया था। उसमें अनेक गलियाँ थीं, जिनमें अनेक दूकानें बनी हुई थीं, जो माल से भरी रहती थीं और उनके पास में ही गोशालाएँ बनी हुई थीं। पानी, घास व ईंधन वगैरह बहुत सहूलियत से मिल जाता था ।लड़ने के लिए तत्पर अनेक सुभट वीर उसकी रक्षा करते थे। दो कोसका उसका विस्तार था । खाई, कोट, गली-चा आदि से सुरक्षित था । मागों में प्याऊ और सदाव्रतशालाएँ बनी हुई थीं, धूर्त, जार और विलासी पुरुषों से रहित था । उसमें नाना देशों के व्यापारी व्यापार के लिए आते थे ।उनसे बहुत थोड़ा टैक्स, भाड़ा और दान लिया जाता था। एकबार पद्मिनीपुर के निवासी, सुदत्ता नाम की सुशील स्त्री के पति, वणिक पति सुमित्र के पुत्र भद्रमित्र ने धन और चारित्र में अपने समान अन्य वणिक् पुत्रों के साथ समुद्र-यात्रा करनेकी इच्छा की। नीति में कहा है-- पादमीयानिवि कुर्यात्पादं वित्ताय कल्पयेत् ।
अपनी आमदनी का एक चौथाई तो जमा करके रखना चाहिए। एक चौथाई से व्यापार करना चाहिए। एक चौथाई धार्मिक कार्यों और भोग में खर्च करना चाहिए और एक चौथाई से अपने आश्रितोंका पालन करना चाहिए ॥373॥धर्मोपभोगयोः पादं पादं भर्तव्यपोषणे ॥373॥ 'कक्षमनुगताप्तकं रलसप्तकं निधाय विधाय च जलयात्रासमर्थमर्थमेकवर्णप्रजाप्रलापसुवर्णद्वीपमनुससार। पुनरगण्यपण्यविनिमयेन तत्रत्यमचिन्त्यमात्माभिमतवस्तुस्कन्धमादाय 'प्रत्यावर्तमानस्यादरसागरावसानस्याकाण्डप्रचण्डबलादनिलात्परिवर्तितपोतपात्रस्य यद्भविष्यत्तयाँ आयुषः शेषत्वात्तस्यैकस्य प्रमादफलकावलम्बनोद्यतस्य कण्ठप्रदेशप्राप्तजीवितस्य कथंकथमपि क्षणदायाः क्षयिणि चरमयामक्षणेऽधिरोधोपलब्धिरभवत् । । 1 ततोऽसौ सुखैधितशरीरत्वादपाराकूपारक्षारवारिवशवशिकाशयधिरायापचितमूर्योदयः करप्रचारचूर्णितचक्रवाकचिन्तामणौ प्रागचलचूलिकाचक्रवालचूडामणौ कमलिनीकुलविकासाहितहंसवासिताशमणि विश्वकर्मणि देर नलिनान्तरालरुचिरे लोचनगोचरे संजाते सति बान्धवजनमरणावविणे संद्रवणाचातीवान्तर्मनस्तयों छातच्छायकायः पेटंचरचेलचीरीनिचिताङ्गशेकेटिः कर्पटिः परपस्त्योपास्तिनिरस्ताभिमानावनिरवैतनिः सन् क्रमेण सिंहपुरं नगरमागत्य गीर्मात्रावसेयपूर्वपर्यायस्तं महामोहरसोत्सारितप्रीति" श्रीभूतिमभिक्षानाधिकवाक्यो माणिकसप्तकमयाचत । परप्रतारणाभ्यस्तभुतिगीतिः श्रीभूतिः -- इस नीति को मानकर भद्रमित्र ने अपने संचित धन को किसी सुरक्षित स्थान में रखने का विचार किया और सोच-विचार कर समस्त लोक में अति विश्वस्त माने जाने वाले उसी श्रीभूति के हाथ में उसकी पत्नी के सामने अत्यन्त मूल्यवान् सात रल सौंपकर जल-यात्रा में समर्थ एक जहाज के द्वारा सुवर्ण द्वीप को चल दिया । वहाँ बहुत-सा माल बेचकर तथा उसके बदले में वहाँ की बहुत-सी मनपसन्द वस्तुएँ खरीद कर वह घरके लिए लौटा ।जब समुद्र का किनारा थोड़ी दूर रह गया, बड़ी जोर का तूफान आ गया और उससे उसका जहाज उलट गया। दैववश आयु शेष होने से उसे जहाज का टूटा हुआ एक लकड़ी का पटिया मिल गया और उसने उसे पकड़ लिया। उसे पकड़े-पकड़े जब उसके प्राण कण्ठ में आ गये तब जिस किसी तरह रात्रि का अन्तिम पहर बीतते-बीतते उसे समुद्र का किनारा मिल गया। एक तो वणिक पुत्र जन्म से ही सुखमें पला था दूसरे अपार समुद्र के खारी पानी ने उसे धनशून्य ही नहीं संज्ञाशन्य भी बना दिया था। अतः किनारे पर लगकर वह बहुत देर तक मूर्छित पड़ा रहा । जब सूर्योदय हुआ तो उसकी आँख कमलों की तरह कुछ खुलीं । बन्धुजनों के मर जाने और धन के नष्ट हो जाने से उसका मन बहुत दुखी था और मुख पीला पड़ गया था। जिस किसी तरह फटे हुए वस्त्र के टुकड़े से अपने शरीर को ढाँककर वह वहाँ से उठा। दूसरों की चाकरी करते-करते उसका सब अभिमान जाता रहा । अन्तमें आजीविका के न मिलने से घूमता-घूमता सिंहपुर पहुंचा और श्रीभूति के पास जाकर उससे अपने सात रत्न माँगे। इस समय उसकी दशा बिलकुल हीन थी। उसकी पूर्व दशा को उसके बचन से ही जाना जा सकता था । अन्य कुछ प्रमाण उसके पास नहीं था। अतः दूसरों को ठगने में कुशल श्रीभूति ने सोचा -- सुप्रयुक्तेन दम्भेन स्वयंभूरपि वञ्च्यते ।
'यदि अच्छी तरह से छलका प्रयोग किया जाये तो ब्रह्मा को भी ठगा जा सकता है। और यदि दूसरे मनुष्य में बड़ा परिवर्तन हो गया हो तब तो आलोचना की बात ही दूर है' ॥374॥का नामालोचनान्यत्र संवृत्तिः परमा यदि ॥374॥ ' इति परामृश्य महाघवाघ्रातचेतास्तमायातशुवमेवमवोचत्-'अहो दुर्दुरूट किराट, किमिह खलु त्वं केनचित्पिशाचेन छलितः, किमु मनोमहामोहावहानुरोधेन मोहनौषधेना तिलहितः, किंवा कितवव्यवहारेषु हारितसमस्तचित्तवृत्तिः, उत अहो परचित्तवञ्चनपिशाचिकया कयाचिल्लजिकयाँ जनितदुष्प्रवृत्तिः, आहोस्वित्फलवतः पादपस्येव श्रीमतः क्रियमाणोऽभियोगो न खलु किमपि फलमसंपाद्य विश्राम्यतीति चेतसा केनचिौघसा विप्रलब्धबुद्धिर्येनैवमतिविरुद्धमभिघत्से । काहम् , क भवान् , क मणयः, कश्चावयोः सम्बन्धः । तत्कूटकपटचेष्टिताकर पट्टनपोटघर, अणकपणिक, सकलमण्डलप्रतीतप्रत्ययिकशीलमति“वेलमेवं मामकाण्डे चण्डकर्मन्पर्यनुयुजानः कथं न लजसे'। पुनश्चैनमर्थप्रार्थनपथमनोरथविशालं शब्दालं" बलात्पोलिन्दमन्दिरमनुचरैरानाय्यानायमतिः', 'देव, अयं वणिग्निष्कारणमस्माकं दुरपवादमृदङ्गवन्मुखरमुखः सुखेनानस्तितस्तानक इवासितुं न ददाति' इत्यादिभि रुदितैरवाप्तप्रसरतयोत्तेजितराजहृदयस्तथैव पृथिवीनाथेनापि निराकारयंत् । भंमित्रः 'चित्रमेतभनु यन्मामपि परविप्रेलम्भाय कुलक्रमायाताखिलकमलानिलयमनन्यसामान्यसाहसालयमेष मोधिषणानिधिरपर इवापायजलनिधिनगरमध्येऽपि मोषितुमभिलषति' इति जातामर्षोत्कर्षस्तं न्यासार्पणेऽतिचिक्कर्णचित्तं निश्चित्य स्वाध्यायिपरिषदि महापरिषदि च तदन्यायोपविन्यासेन साध्यसिद्धिमनवबुद्ध यानंधीनधीः अशङ्कथुकमतिर्महादेवीधामनेमें निवेशमम्लिकानोकहशिखादेशमारुह्यापद्गृयः "कुररीविरहावसरः कुरर इव तस्विनीप्रथमपश्चिमयामसमये 'सुहधराहुतिः श्रीभूतिरेवंविधकरण्डकविन्यस्तम्, इयसंस्थानसम् , एतद्वर्णम् , अदः संख्याभ्यर्ण व मदीयं मणिगणमुपनिधिनिधेयं न प्रतिददातीत्यत्र चास्यैव धर्मरमणी साक्षिणी । यदि च यवदतयैतदन्यथा मनागपि भवति तदा मे चित्रवधो विधातव्यः' इति दीर्घघोषपूर्णितमूर्धमध्यमूर्वबाहुः सर्वर्तुपरिवर्ताध पूत्कुर्वन्नेकदा नगराङ्गनाजनस्य चन्द्रामृतपात्रयन्त्रधारागृहावगाहगौरितजगत्त्रयं कौमुदीमहोत्सवसमयमालोकमानया तमलोत्सङ्गसमासीनया" निपुणिकाभिधानोपसवित्री समेतया अनाथलोकलोचनचकोरकौमुदीकल्पवृत्तया रामदत्त्या करुणारसप्रचारपदव्या महादेव्याकर्णितोऽ'नुक्रोशाभिनिवेशानिर्वर्णितश्च । । तदस्मन्मनःसंधात्रि धात्रि, न खल्वेष मनुष्यः पिशाचपरिप्लुतो नाप्युन्मत्ताचरितो यतस्तं दिवसमादिं कृत्वा सकलमपि परिवत्सरदलमेकवाक्यव्याहाराकुण्ठपाठकठोरकण्ठनालः । तद्विचारयेयं तावदचिरकालं 'शारविशारहृदयाम्बुजस्य एतत्क्रीडाव्याजेन मन्त्ररन्तःकरणम्। अम्बिके, स्वयापि 'पतदेवनावसरे यद्यहमेनमनेककुचराचारनिचितचित्तमतिबाहुकुकुटिचेष्टितं बकोटवृत्तमुदन्तजातं पृच्छामि, यद्यचास्य कटकोर्मिकांशुकादिकं जयामि, तत्तदेवाभिमानीकृत्य मृगीमुखव्याघ्रीसमाचारकुट्टनी श्रीदत्ता भटिनी तिम्तिणीकातरुभाजोऽस्य वणिजो विषमरुचिमरीचिसंख्यासंपन्नानि" रत्नानि याचयितव्या इति निपुणिकायाः कृतसंगीतिः श्वस्येऽहनि' 'सदैव मदीयहृदयानन्ददुन्दुभे दुन्दुभे, त्वयापि भगवत्या साधु विजृम्भितव्यम्, यद्यस्य चिञ्चापुरुषस्यास्ति सत्यता' इत्यध्येष्य" तथैवाचरिताचरणा शतशस्तत्तदभिज्ञानशापनानुबन्धतन्त्रात्तत्कलत्रान्मणीनुपप्रणीय" राक्षः समर्पयामास। स राजाद्भुतांशी स्वकीयरत्नराशौ तानि संकीर्य आकार्य चैनमासन्नलक्ष्मीकल्पलताविलासनन्दनं वैदेहकनन्दनम्, 'अहो वणिक्तनय, यान्यत्र रत्ननिचये तव रत्नानि सन्ति तानि त्वं विचिन्त्य गृहाण' इत्यभाणीत् । भद्रमित्रः 'चिरत्राय ननु दिष्टेया वर्धेऽहम्' इति मनस्यभिनिविश्य' 'यथादिशति विशांपतिः' इत्युपादिश्य विमृश्य च तस्यां माणिक्यपुऔर निजान्येव मनाग्विलम्बितपरिचयचिरत्नानि रत्नानि समग्रहीत् । ततः स नरवरः सपरिवारः प्रकामं विस्मितमतिः 'वणिक्पते, त्वमेवात्रान्वर्थतः सत्यघोषः, त्वमेव च परमनिस्पृहमनीषः, यत्तव चेतसि वचसि च न मनागप्यन्यथाभावः समस्ति' इति प्रतीतिमिः पारितोषिकप्रदानपुरःसरप्रकृतिभिस्तत्तदोपयिकोपचितिवसतिभिश्च भणितिभिस्तमखिलब्रह्मस्तम्बस्तिभीविज़म्भमाणगुणस्तोत्रं भद्रमित्रं कथंकारं न श्लाघयामास। पुनरदूरीशिवतातिं श्रीभूति निखिललोकलपनालवालमूलकोली तालताश्रयशाखिनं न्युब्जाननं निसर्गेण हरिणीसमच्छायमपि महासाहसानुष्ठानात्सूर्मीसमानकायमनल्पवैलक्ष्यस्फुटदास्वनितमतीवभयाविभूतोत्पंथवेपथुस्तिमितमवेक्ष्य बह्वाक्षेपम् , 'श्राः° सोमपायिनामपक्तिय' वैधेय', विश्वासघातपातकप्रसव श्रोत्रियकितव दुराचार प्रवर्तितनूनरलापहार, कुसिककुलपांसन, बकानुष्ठानसदन, साधुजनमनःशेकुँनिबन्धनायातनुतन्त्रीजालमिव खलु तवेदं यज्ञोपवीतम् । असदाचारावधिक वेदवैवधिक', सद्धर्मधामध्यामलताविधानाय विश्वभोजः समेधैर्न, अकृत्यचैत्य वात्योमात्य जरायमदूतिकोपैतिक दुर्गतिक, किमात्मनो न पश्यसि चर्मितरुत्वचमिवातिप्रवृद्धविश्रो वात्योन्माथशिथिलितां,' प्रभातप्रदीपिकामिवास्तासन्नजीवितरविमङ्गच्छवि येनाधावियोधसि पयसि वर्तमान इव चेष्टसे । तदिदानीं यदि घनाभिघारघोरतेजसि विश्ववेदसि निक्षिप्यसे, तदा चिरोपचितदुराचारप्रहस्य स तवाचिरदुःखदायिपरिग्रहोऽनुग्रहो इव । ततो द्विजापसद, कदाचित्त्वयेदमति दुर्गन्धगोर्वरोद्गर्वितमध्याशयं शालाजिरत्रयमशितव्यम् , नो चेदशरोलबलोत्कुलगलानां मलानां त्रयस्त्रिंशदपहस्तप्रहतानि सहितव्यानि । ध्रुवमन्यथा तव सर्वस्वापहारः।' प्रणाशावकाशविभूतिः श्रीभूतिराद्यनयं दण्डवयं क्रमेणातितिक्षमाणः 'पर्याप्तसमस्तद्रविणः क्रिमिकिर्मोरपरिषत्परिकल्पितमाष्टिः , कृतकलशकपालमालावासिकसृष्टिरुत्सृष्टंसरावनपरिष्कृतः पुरोदवालवालेयकमारोह्य सनिकारं निष्कासितः पापविपाकोपपन्नाप्रतिष्कुष्टो दुष्परिणामकनिष्टः शुभाशयारण्यविनाशमहसि "हिरण्यरेतसि तनुविसर्गादतिरौद्रसर्गादाहेयेऽम्वेवाये प्रादुर्भूय चिरायापराध्ये च प्राणिषु जातजीवितावधिरधःप्रधाननिधिर्बभूव । भवति चात्र श्लोकः -- ऐसा विचारकर वह महातृष्णालु उस शोकमग्न वणिकपुत्र से इस प्रकार बोला- 'अरे दुराग्रही नीच वणिक् ! क्या तुझे किसी पिशाच ने छला है ? या मन को मोहित करने वाली किसी मोहन औषध ने तुझे बदहोश कर दिया है ? या जुए में अपनी चित्तवृत्ति को भी हार गया है ? या दूसरों के मनको ठगनेवाली किसी दुराचारिणी ने तेरी यह दुर्गति की है ? या 'फलवान वृक्ष की तरह किसी श्रीमान के विरुद्ध लगाया गया अभियोग बिना फल दिये नहीं रहता' इस विचार से किसी दुर्बुद्धिने तुझे ठगा है जिससे तू ऐसी बेसिर-पैर की बात बोलता है ? कहाँ मैं, कहाँ तू , कहाँ रत्न ? हमारा तुम्हारा सम्बन्ध ही क्या ? छल-कपट में चतुर, नगरचोर, निन्दनीय वणिक ! सर्वत्र देशों में मेरी विश्वसनीयता की ख्याति है। इस तरह असमय में मुझसे पूछते हुए तुझे लज्जा नहीं आती?' इसके पश्चात् उस पिशाच श्रीभूति ने अपने रत्न प्राप्त करने के लिए चिल्लाते फिरते उस वणिक पुत्र को जबरदस्ती नौकरों के द्वारा राजमन्दिर में बुलवाकर राजासे कहा—'महाराज ! यह वणिक् व्यर्थ ही सर्वत्र हमारा अपवाद करता फिरता है । ना नाथके बैल की तरह सुखसे बैठने भी नहीं देता।' इत्यादि बातों के द्वारा उसने राजा का हृदय भी उसकी ओर से उत्तेजित कर दिया। और राजा के द्वारा भी उसे महल से निकलवा दिया। तब भद्रमित्र विचारने लगा- 'मेरे घर में वंश परम्परा से लक्ष्मी का निवास चला आता है, तथा मैं असाधारण साहसी भी हूँ फिर भी आश्चर्य है कि यह पक्का ठग नगर के बीच में ही मेरा माल हड़प लेना चाहता है।' यह सोचकर उसे बड़ा क्रोध ही आया। उसे निश्चय हो गया कि श्रीभूति मेरी धरोहर को कभी नहीं देगा तथा समझदारों और धर्माधिकारियों के सामने उसके अन्यायको रखने से भी कुछ लाभ नहीं होगा। तब उस बुद्धिशाली ने एक दूसरा उपाय किया। राजा की पटरानी के महलके समीप एक इमली का वृक्ष था। रात के समय वह उसकी चोटी पर चढ़ जाता और जैसे सारसी के विछोह में सारस चिल्लाता है उस तरह रात्रि के प्रथम और अन्तिम पहर में हाथ ऊपर उठाकर बड़े जोर से चिल्लाता--"मेरा पूर्व मित्र किन्तु अव शत्रु श्रीभूति अमुक प्रकारकी पेटीमें रखे हुए, अमुक आकार और अमुक रंग के तथा अमुक संख्यावाले मेरे रत्नोंको नहीं देता ।मैंने उसके पास धरोहरके रूपमें रखे थे । इसकी साक्षी उसी की धर्मपत्नी है। यदि मेरा कथन रंच मात्र भी असत्य हो तो मुझे मरवा दिया जाये।" ऐसा चिल्लाते-चिल्लाते उसे छह माह बीत गये। एकबार अनाथ लोगों के लोचनरूपी चकोर के लिए चाँदनी के समान आचरण वाली दयावती राजमहिषी रामदत्ता कौमुदी महोत्सव देखती थी ।उसके पास में उसकी धाय निपुणिका बैठी थी। उस समय रामदत्ता ने उस वणिक्की पुकार सुनी और दयापूर्ण भाव से अपनी धाय से बोली 'धाय ! न तो यह मनुष्य पिशाच से ही ठगा गया है और न इसका आचरण पागलों के जैसा ही है। क्योंकि उस दिन से लेकर पूरे छह माह तक यह एक ही बात चिल्लाता है। अतः धूर्त क्रीडा के शौकीन श्रीभूति के साथ धूर्त क्रीडा के बहाने से उसके मनकी बात शीघ्र जाननी चाहिए । जुआ खेलते समय मैं उस अनाचारी बगुला भगत से जो-जो बात पूछू तथा जो उसके कंकण, अँगूठी, वस्त्र वगैरह जीतूं उन सबको प्रमाण रूप से उपस्थित करके तुम्हें उस मृगी के समान मुख किन्तु सिंहनी के समान आचरणवाली कुटनी श्रीदत्ता से इमली के वृक्षपर चढ़े हुए इस वणिक्के सात रत्न माँग लाने चाहिए।' इस प्रकार निपुणिका को समझाकर दूसरे दिन रानी ने हे मेरे हृदय को आनन्द देनेवाले पाशदेवता ! यदि इस इमली के वृक्षवाला मनुष्य सच्चा है तो तुम्हें भी उसमें सहायता करनी चाहिए ऐसी प्रार्थना करके वैसा ही किया और बार-बार जुए में जीते हुए पदार्थों को प्रमाण रूप से उपस्थित करके श्रीभूति की पत्नीसे रत्न माँग लिये तथा उन्हें राजा को दे दिया । राजा ने उन रत्नों को अपने अद्भुत रत्नों में मिलाकर उस वणिक-पुत्रको बुलाया और कहा--'वणिक-पुत्र ! इन रत्नों में-से जो रत्न तुम्हारे हों उन्हें चुनकर ले लो।' 'चिरकालके बाद मेरा भाग्योदय हुआ है' ऐसा मनमें सोचकर भद्रमित्र बोला- 'जो आज्ञा महाराज । ' चूंकि रत्नों को देखे हुए बहुत दिन हो गये थे इसलिए उन्हें चुनने में थोड़ा समय लगा। किन्तु उसने विचारकर उन रत्नों में-से अपने रत्नोंको खोज लिया। यह देखकर सपरिवार राजा को बड़ा आश्चर्य हुआ। वह बोला-'वणिक्पति ! तुम ही वास्तव में सत्यघोष हो, तुम ही अत्यन्त निस्पृही हो; क्योंकि तुम्हारे मन और वचन में जरा भी छलछिद्र नहीं है।' इस प्रकारके वचनों के द्वारा, पारितोषिक वगैरहके द्वारा तथा उस समय के योग्य अन्य उपायों के द्वारा राजाने सबके द्वारा प्रशंसित भद्रमित्र की बहुत-बहुत सराहना की। बेचारा अभागा श्रीभूति नीचा मुख किये हुए खड़ा था । यद्यपि वह स्वभाव से ही देखने में हरिणी के समान दीन था तथापि उसने बड़ा साहस किया था और उसके कारण वह ऐसा प्रतीत होता था मानो लोहे की कोई मूर्ति है। उसके मुखपर असीम लज्जा बोलती थी। भय के कारण वह थर-थर काँप रहा था। उसे देखकर राजा बड़े तिरस्कार के साथ बोला-'ब्राह्मण कुल कलंक, मूर्ख, विश्वासघाती, जुएके द्वारा नये-नये रत्नोंको अपहरण करनेवाले, बगुला भगत ! तुम्हारा यह यज्ञोपवीत साधु पुरुषों के मनरूपी पक्षियोंको फंसानेके लिए बड़ा भारी ताँतका जाल है। अरे दुराचारी, वेदों के भारवाही ! समीचीन धर्मरूपी मन्दिर को मलिन करने वाले, कुकर्म के घर, दुष्ट मन्त्री ! क्या तुम वृद्धता के कारण भोजवृक्ष की छाल की तरह शिथिल हुए और तेज हवा के झोंके से बुझने के उन्मुख हुए प्रभातकालीन दीपक की तरह अथवा अस्त होने के उन्मुख हुए सूर्य की तरह अपने शरीर की दशा को नहीं देखते हो, जिससे अब भी ऐसी चेष्टाएँ करते हो मानो तुम युवा हो। अतः अब यदि तुम्हें खूब जलती हुई अग्नि में डाल दिया जाये तो यह तुम्हारे जैसे पुराने पापी पर अनुग्रह ही होगा; क्योंकि इससे तुम थोड़ी ही देर तक दुःख उठा सकोगे। इसलिए नीच ब्राह्मण ! या तो तुम्हें अत्यन्त दुर्गन्धित गोबर से भरे हुए तीन प्याले खाने चाहिये, या खूब मोटे ताजे बलशाली पहलवानों के हाथके तेतीस प्रहार सहने चाहिएँ। नहीं तो अवश्य ही तुम्हारा सर्वस्व हर लिया जायेगा।' विनाश से बचाव को विभूति मानने वाला श्रीभूति पहल के दो दण्ड तो क्रम से नहीं सह सका । अतः उसका सब धन हर लिया गया और समस्त बदन पर चितकबरे रंग से चित्रकारी करके तथा घड़े के खप्परों की और फूटे हुए शकोरों की माला पहना कर गधे पर बैठाकर उसे तिरस्कारपूर्वक नगर से निकाल दिया। पाप कर्म का उदय आने से उसे कोढ़ हो गया और वह अत्यन्त नीच परिणामों से आग में जलकर मर गया। तथा साँपों के वंशमें उत्पन्न हुआ। वहाँ उसने अनेक प्राणियों को डसा और आयु पूरी करके नरक में गया। इसके सम्बन्ध में एक श्लोक है जिसका भाव इस प्रकार है -- श्रीभूतिः स्तेयदोषेण पत्युः प्राप्य पराभवम् ।
'चोरीके दोष के कारण श्रीभूति राजा के द्वारा तिरस्कृत हुआ। और आगमें जलकर मर गया । फिर सर्पयोनि में जन्म लेकर नरकगामी हुआ' ॥375॥रोहिदश्व प्रवेशेन दंशेरः सन्नधोगतः ॥375॥ इत्युपासकाध्ययने स्तेयफलप्रलपनो नाम सप्तविंशतितमः कल्पः। इस प्रकार उपासकाध्ययन में चोरी का फल बतलाने वाला सत्ताईसवाँ कल्प समाप्त हुआ । |