+ देशना लब्धि का स्वरुप -
छद्दव्वणवपयत्थोपदेसयरसूरिपहुदिलाहो जो
देसिदपदत्थधारणलाहो वा तदियलद्दी दु ॥6॥
अन्वयार्थ : [छ] छ: [द्दव्व] द्रव्य और [णव] नौ [पयत्थो] पदार्थों का [पदेसयरसूरिपहुदि] उपदेश देने वाले आचार्य आदि से अथवा [देसिद] उपदेशित [पदत्थ] पदार्थों को [धारण] धारण कर [लाहो] लाभान्वित [जो] होना, [वा] वह [तदियलद्दी] तृतिया लब्धि (देशना) है ।

  बोधिनी 

बोधिनी :


षड् द्रव्यनवपदार्थोपदेशकरसूरि प्रभृतिलाभो य:;;देशितपदार्थधारणलाभो वा तृतीयलब्धिस्तु ॥६॥
आचार्यं आदि के द्वारा दिए गए ६ द्रव्यों और ९ पदार्थों आदि के उपदेश सुनकर उन्हें ग्रहण उन्हें धारण कर लाभान्वित होना देशना लब्धि है । विशेष --

१ - जीव, पुद्गल, धर्म, अधर्म, आकाश और काल; छः द्रव्यों और जीव, अजीव, आस्रव, बंध, संवर, निर्जरा, मोक्ष, पुण्य, पाप इन नव पदार्थों के उपदेश को 'देशना' कहते है । देशना से परिणत आचार्यादि की उपलब्धि को और उपदिष्ट अर्थ के ग्रहण, धारण तथा विचारण की शक्ति के समागम को देशना-लब्धि कहते है । (ध.पु. ६, पृ-२०४)

२ - गाथा के अंत में 'दु' पद से वेदनानुभव, जातिस्मरण, जिनबिम्ब दर्शन, देवऋद्धि, दर्शनादि कारणों का ग्रहण होता है क्योकि इन कारणों से नैसर्गिक प्रथमोपशम सम्यक्त्व उत्पन्न होता है, जो धर्मोपदेश के अभाव मे जातिस्मरण, जिनबिम्ब दर्शनों से प्रथमोपशम सम्यक्तव होता है वह नैसर्गिक सम्यग्दर्शन होता है क्योकि इन के अभाव में यह होना असम्भव है । (ध.पु. ६, पृ ३१) जिनबिम्ब दर्शन से निधत्ति और निकाचित रूप कर्मों का क्षय देखा जाता है, जिससे जिनबिम्ब दर्शन प्रथमोपशम सम्यक्त्व की उत्पत्ति में कारण होता है । (ध.पु.६ पृ ४२७) । सामन्यत जातिस्मरण द्वारा सम्यक्त्व की उत्पत्ति नही होती किन्तु धर्मबुद्धि से पूर्व भव में किये गए मिथ्यानुष्ठान की विफलता का दर्शन प्रथमोपशम सम्यक्त्व के लिए कारण होता है । (ध,पु. ६ पृ ४२२)