+ प्रायोग्य लब्धि का स्वरुप -
अंतोकोडकोडी विट्ठाणे ठिदिरसाण जं करणं
पाउग्गलद्धिणामा भव्वाभव्वेसु सामण्णा॥7॥
अन्वयार्थ : कर्मों की [ठिदि] स्थिति को [अंतो] अंत: [कोडकोडी] कोड़ाकोड़ी-सागर प्रमाण तथा उनका [रसाण] अनुभाग [विट्ठाणे] द्वि-स्थानिक [जं करणं] करने को [पाउग्गलद्धिणामा] प्रायोग्य लब्धि कहते है । यह [भव्वाभव्वेसु] भव्य और अभव्य के [सामण्णा] समान रूप से होती है ।

  बोधिनी 

बोधिनी :


अंत:कोटाकोटि द्विस्थाने स्थितिरसयो: यत्करणम्;;प्रायोग्यलब्धिर्नामा भव्याभव्येषु सामान्यात् ॥७॥
तीनो लब्धि युक्त पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्तक, ज्ञानोपयोगी जीव आयुकर्म के अतिरिक्त शेष सात कर्मों की स्थिति अन्त:कोडकोडी सागर रहने पर और अशुभ घातिया कर्मों के अनुभाग को लता और दारु रूप तथा अघातिया कर्मों के अनुभाग को नीम और कांजी, दो-दो स्थानगत करने से प्रायोग्य लब्धि होती है।यह भव्य और अभव्य दोनों को समान रूप से होती है । विशेष --

१ - पंचेन्द्रिय, संज्ञी, पर्याप्तक, ज्ञानोपयोगी जीव की आयु कर्म के अतिरिक्त शेष सात कर्म बंध की स्थिति अंत: कोडाकोड़ी सागर रहने पर प्रथमोपशम सम्यक्त्व प्राप्ति की योग्यता हो जाती है ।

२ - प्रयोग्य लब्धि से जीव के परिणामों में इतनी विशुद्धि होती है कि सात कर्मों की उत्कृष्ट स्थिति का कंडाकघात द्वारा घात कर वह अंत:कोडाकोड़ी सागर कर लेता है तथा अशुभ घातिया कर्मों के चतुस्थानीय अनुभाग का घात कर उन्हें लता और दारु तथा अघातिया कर्मों के अनुभाग को नीम और कांजी, द्वी -द्विस्थानीय अनु भाग करता है ।किन्तु प्रशस्तप्रकृतियों का अनुभाग गुड़ -खांड-शर्करा और अमृत चतुः स्थानीय ही रहता है क्योकि विशुद्धि के द्वारा प्रशस्त प्रकृतियों के अनुभाग का घात नही होता है । (ध.पु. ६, पृ २०९, एवं ध.पु. १२ पृ १८ व् ३५) । इन अवस्थाओं के होने पर करण अर्थात पंचम करणलाब्धि होती है । (ध.पु. ६, पृ-२०५) इतनी विशुद्धि भव्य-सिद्धिक और अभव्य-सिद्धिक दोनों प्रकार के जीवों में होती है । जो की गाथा में 'भव्वाभव्वेसु' पद से स्पष्ट है । इसमें किसी आचर्य को भी आपत्ति नही है ।