+ प्रथमोपशम सम्यक्त्व ग्रहण करने की योग्यता का प्रतिपादन -
जेट्ठवरट्ठिदिबंधे जेट्ठवरट्ठिदितियाण सत्ते य
ण य पडिवज्जदि पढमुवसमसम्मं मिच्छ जीवो हु ॥8॥
अन्वयार्थ : [जेट्ठवरट्ठिदिबंधे] उत्कृष्ट/जघन्य स्थिति बंध करने वाले [च] तथा [तियाण] स्थिति, अनुभाग और प्रदेश इन तीनों का [जेट्ठवरट्ठिदि] उत्कृष्ट/जघन्य [सत्ते] सत्व [य] वाले [मिच्छ] मिथ्यादृष्टि [जीवो] जीवों के [पढमुवसमसम्मं] प्रथमोपशम सम्यक्त्व [ण] नही [पडिवज्जदि] उत्पन्न [हु] होता है ।

  बोधिनी 

बोधिनी :


ज्येष्ठवरस्थितिबन्धे ज्येष्ठवरस्थितित्रिकाणां सत्त्वे च;;न च प्रतिपध्यते प्रथमोपशमसम्यक्त्वं मिथ्याजीवो हि ॥८॥
स्वामित्व की अपेक्षा, उत्कृष्ट स्थिति बंध व उत्कृष्ट स्थिति-अनुभाग और प्रदेश सत्त्व वाले, उत्कृष्ट संक्लेश परिणामी मिथ्यादृष्टि जीव होता है, जिसके उत्कृष्ट संक्लेश के कारण प्रथमोपशम समयकत्व उत्पन्न नही हो सकता तथा जघन्य स्थिति बंध व जघन्य स्थिति बंध और स्थिति-अनुभाग-प्रदेश सत्त्व क्षपक होता है, वहां क्षायिक सम्यक्त्व है । विशेष --
  1. उत्कृष्ट स्थिति बंध - सर्व पर्याप्तियों से पर्याप्तक, साकार जागृत श्रुतोपयोग से युक्त, उत्कृष्ट स्थिति-बंध के साथ उत्कृष्ट स्थिति बंध योग्य संकलेशित परिणामी अथवा मध्यम-संकलेषित परिणामी है, ऐसा कोई संज्ञी पंचेन्द्रिय मिथ्यादृष्टि जीव सात कर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, मोहनीय, आयु, नाम, गोत्र और अंतराय) के उत्कृष्ट स्थिति बंध का स्वामी है । (महाबंध पु.२ ,पृ ३३)
  2. जघन्य स्थितिबंध -- जो अन्यतर सूक्ष्म साम्परायिक क्षपक अंतिम बंध में अवस्थित सम्यग्दृष्टि जीव ६ कर्मों (ज्ञानावरण, दर्शनावरण, वेदनीय, नाम, गोत्र व अंतराय) के जघन्य स्थिति बंध के स्वामी है । जो अनिवृत्ति-करण क्षपक अंतिम स्थिति-बंध में अवस्थित है, वे मोहनीय कर्म की जघन्य स्थिति बंध के स्वामी है । (महाबंध पू. २ पृ ४०)
  3. उत्कृष्ट विशुद्धि द्वारा जघन्य स्थितिबंध होता है क्योकि सर्व स्थितियों के प्रशस्त-भाव का अभाव है । संक्लेष की वृद्धि से सर्व प्रकृति संबंधी स्थितियों की वृद्धि होती है तथा विशुद्धि की वृद्धि से उन्ही स्थितियों की हानि होती है । (ध.पु.११ पृ ३१४) । असाता वेदनीय के बंध योग्य संक्लेषित और साता के बंधने योग्य विशुद्ध परिणाम होते है । (ध.पु.६, पृ १८०)
  4. उत्कृष्ट स्थिति सत्व -- जो जीव चतुः स्थानीय यव मध्य के ऊपर अंत:कोडाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति को बांधे हुआ स्थित है और अनन्तर उत्कृष्ट संक्लेश को प्राप्त कर,जिसने उत्कृष्ट स्थिति बंध किया है,ऐसे किसी भी मिथ्यदृष्टि जीव के उत्कृष्ट स्थिति सत्व होता है । (ज.ध.पु.३ पृ १६)
  5. जघन्य स्थिति सत्व -- किसी भी क्षपक जीव के सकषायावस्था के अंतिम समय में अर्थात सूक्ष्म साम्पराय गुणस्थान के चरम समय में मोहनीय कर्म का जघन्य स्थिति सत्व होता है।(ज.ध. पू. ३ पृ २०) ।ज्ञानावरण, दर्शनावरण और अंतराय कर्मों का जघन्यस्थिति सत्व क्षीण मोह गुणस्थान (१२वे) के अंतिम समय में होता है । चार अघातिया कर्मों का का जघन्य स्थिति सत्व आयोग-केवली गुणस्थान के अंतिम समय में होता है क्योकि इंन सर्व कर्मों का वहां वहां एक समय मात्र का स्थिति सत्व पाया जाता है ।
  6. उत्कृष्ट अनुभाग सत्व -- जीव जब तक उत्कृष्ट अनुभाग सत्व करके जब तक उस अनुभाग का घात नही करता तब तक उस जीव का उत्कृष्ट अनुभाग सत्व है । (ज.ध.पु. ५ पृ ११)
  7. जघन्य अनुभाग सत्व -- सकषाय क्षपक के अर्थात दसवे गुणस्थान के अंतिम समय में मोहनीय-कर्म का जघन्य अनुभाग सत्व होता है । (ज.ध.पु. ५ पृ १६) -- शेष तीन घातिया कर्मों का जघन्य अनुभाग सत्व क्षीण-मोह गुणस्थान के अंतिम समय में होता है ।
  8. उत्कृष्ट प्रदेश सत्त्व -- गुणित कर्मांशिक के सातवे नरक में चरम समय में होता है ।

  9. जघन्य प्रदेश सत्त्व -- क्षपित कर्मांशिक के १०वे गुणस्थान के अंतिम समय में मोहनीय कर्म और १२ वें गुणस्थान के चरम समय में तीन घातिया कर्मों का जघन्य प्रदेश सत्त्व है ।