+ प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख हुए जीव के स्थिति बंध योग्य परिणाम निम्न सूत्र में बताये गए है -
सम्मतहिमुहमिच्छो विसोहिवड्ढीहि वड्ढमाणो हु
अंतो कोडाकोडि सत्तण्हं बंधणं कुणई ॥9॥
अन्वयार्थ : [सम्मत] प्रथमोपशम सम्यक्त्व के [हिमुह] अभिमुख [मिच्छो] मिथ्यादृष्टि जीव, परिणामों में [वड्ढमाणो] प्रतिसमय वृद्धिंगत [विसोहि] विशुद्धता [वड्ढीहि] वर्धमान (बढ़ते) हुए [हु] करता है, [सत्तण्हं] वह (आयुकर्म के अतिरिक्त) सात (ज्ञानवरणीय, दर्शनावरणीय, वेदनीय, मोहनीय, नाम, गोत्र और अंतराय) कर्मों का [अंतो] अंत: कोडाकोड़ी सागरप्रमाण स्थिति [बंधणं] बंध [कुणई] करता है ।

  बोधिनी 

बोधिनी :


सम्यक्त्वाभिमुखमिथ्यः विशुद्धिवृद्धिभिः वर्धमानः खलु;;अंतःकोकोटि सप्तानां बंधन करोति ॥९॥
प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख सभी मिथ्यदृष्टि जीव एक कोड़ा कोडी सागर के अंतर्गत ही स्थिति बंध रहता है इससे अधिक स्थितिबंध नही करते (ध.पु.६ पृ.१३५) । वह जीव बंधने वाली इन ७ कर्म प्रकृतियों का स्थितिबंध अंत:कोड़ा कोडी सागर प्रमाण ही करते है क्योकि वह उनके यथायोग्य विशुद्धपरिणामों से युक्त होता है ।(ज. ध,पु.१२ पृ २१३) विशेष --

प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि जीव, प्रयोग्यलब्धि के प्रथम समय से, प्रति समय परिणामों में वर्धमानगत अनंतगुणी विशुद्धि की वृद्धि करते हुए आयु के अतिरिक्त सप्त कर्मों का स्थिति बंध; अंत: कोड़ाकोडी सागर प्रमाण करता है ।