+ प्रायोग्य-लब्धि काल में प्रकृति-बंधापसरण -
तत्तो उदहिसदस्स य पुधत्तमेत्तं पुणो पुणोदरिय
बंधम्मि पयडिबन्धुच्छेदपदा होंति चोत्तीसा ॥10॥
अन्वयार्थ : [तत्तो] उस (अंत:कोडाकोड़ी सागर स्थिति) [उदहि] उदय से पृथकत्व [सदस्स] सौ सागर हीन स्थिति को बंध कर [पुणोपुणो] पुन:पुन; [पुधत्त] पृथकत्व [मेत्तं] मात्र १०० सागर [उदरिय] उदीरणा (घटाते) करते हुए, [बंधम्मि] स्थितिबंध करने पर [पयडिबन्ध:] प्रकृति बंध [उच्छेद] व्युच्छति के [चोत्तीसा] चौतीस [पदा] स्थान [होंति] होते है ।

  बोधिनी 

बोधिनी :


तत:उदये शतस्य च पृथकत्वमात्रं पुंन: पुनरूदीर्य;;बंधे प्रकृतिबंधोच्छेदपदानि भवंति चतुश्र्चत्वारिंशत् ॥१०॥
अंत:कोडकोडी सागरोपम स्थितिबंध से पृथकत्व १०० सागर प्रमाण स्थितिबंध घटने का क्रम निम्न प्रकार है ।

अंत:कोडकोडी सागर प्रमाण स्थिति-बंध से, पल्य के संख्यातवे भाग से हीन, स्थिति को अंतर्मूर्हत पर्यन्त, समानता लिए हुए ही बांधता है । तदुपरांत उससे पल्य के संख्यातवे भाग हीन स्थिति को अंतर्मूर्हत पर्यन्त बांधता है । इस प्रकार पल्य के संख्यातवें भाग हीन क्रम से, एक पल्यहीन अंत:कोडकोडी सागरोपम स्थिति-बंध अंतर्मूर्हत पर्यन्त करता है तथा इसी पल्य के संख्यातवे भाग हीन क्रम से स्थिति-बन्धापसरण करता हुआ २ पल्य से हीन, ३ पल्य से हीन इत्यादि स्थिति-बंध अंतर्मूर्हत तक करता है । पुन: इसी क्रम से आगे-आगे स्थिति-बंध का ह्नास करता हुआ एक सागर से हीन, दो सागर से हीन इत्यादि क्रम से ७००-८०० सागरोपम से हीन अंत: कोडा-कोड़ी सागर प्रमाण स्थिति-बंध जिस समय करने लगता है, उस समय प्रकृतिबंध-व्युच्छित्ति का एक बन्धापसरण होता है । उपर्युक्त क्रम से ही स्थितिबंध का ह्नास होता है और जब वह ह्नास सागरोपम शत पृथकत्व प्रमित हो जाता है तब प्रकृतिबंध व्युच्छित्ति रूप दूसरा बन्धापसरण होता है । यही क्रम आगे भी चलता है ।