+ चौतीस प्रकृति बन्धापसरणों (व्युच्छेद) का ५ गाथाओं में वर्णन -
आऊ पडि णिरयदुगे, सुहुमतिये सुहुमदोण्णि पत्तेयं
बादरजुत दोण्णि पदे, अपुण्णजुद बि ति चसण्णिसण्णीसु ॥11॥
अट्ठ-अपुण्णपदेसु वि,पुण्णेण जुदेसु तेसु तुरियेपदे
एइंद्रिय आदावं, थावरणामं च मिलिदव्वं ॥12॥
तिरिगदुगुज्जोवो वि य णीचे अपसत्थगमण दुभगतिय
हुंडासंपत्ते वि य णउंसए वाम-खिलीए ॥13॥
खुज्जद्धंणाराए, इत्थिवेदे य सादिणाराए
णाग्गोधवज्जणाराए, मणुओरालदुगवज्जे ॥14॥
अथिरअसुभजस-अरदी सोय-असादे य होंति चोतिसा
बंधोसरणट्ठाणा, भव्वा भव्वेसु सामाण्णा ॥15॥
अन्वयार्थ : [आऊ] आयुबंध व्युच्छित्ति स्थानों के पश्चात [पडि] क्रमश: [णिरयदुगे] नरक-द्विक (नरक गति, नरकगत्यानुपूर्वी), [सुहुमतिये] सूक्ष्म तीन (सूक्ष्म -- अपर्याप्त, साधारण, शरीर), [सुहुमदोण्णि] सूक्ष्म दो (सूक्ष्म -- अपर्याप्त, प्रत्येक), व [बादरजुत द्वि] (बादर -- अपर्याप्त, प्रत्येक), (बादर -- अपर्याप्त, साधारण) [पत्तेयं] प्रत्येक, अपर्याप्त [दोण्णिपदे] द्वीन्द्रिय, [अपुण्णजुद] अपर्याप्त सहित [बितिचसण्णि] त्रीन्द्रिय चतुरिंद्रिय अपर्याप्त [असण्णी] असंज्ञी पंचेन्द्रिय, अपर्याप्त [सण्णीसु] संज्ञी पंचेन्द्रिय ।
उपर्युक्त [अट्ठ] आठ [अपुण्ण] अपर्याप्त [पदेसु] पदों (६ से १३ में) [वि] के स्थान पर [पुण्णेण] पर्याप्त [जुदेसु] जैसे [तेसु] वैसे और [तुरिये] चौथे [पदे] पद में (अर्थात ९वे में) [एइंद्रिय] एकेन्द्रिय [आदावं] आतप [थावरणामं] स्थावर [च] भी [मिलिदव्वं] लगाना है ।
उसके बाद क्रम से, (संख्या २२ के) आयु से शत सागरोपम पृथकत्व नीचे - नीचे उतर कर संयोग-रूप [तिरिगदुगुज्जोवो] तिर्यञ्चद्विक -- तिर्यंचगति और तिर्यंचानुपूर्वी उद्योत का युगपत, [णीचे] नीच गोत्र [अपसत्थगमण] अप्रशस्त विहायोगगति, [दुभगतिय] दुर्भग -- दुःस्वर और अनादेय चार प्रकृतियों का युगपत, [हुंडासंपत्ते] हुंडक-संस्थान - सृपाटिका संहनन प्रकृतियों कस युगपत, [णउंसए] नपुंसक वेद प्रकृति [वि] की भी [य] तथा [वाम] वामन संस्थान व [खिलीए] कीलितसंहनन प्रकृति के व्युच्छिति प्राप्ति के क्रमश: २३, २४, २५, २६, २७ और २८वे स्थान है ।
उसके बाद (२८वे) स्थान की आयु से प्रत्येक स्थान से क्रमश: शतसागरोपम पृथकत्व नीचे-नीचे उत्तर कर [खुज्ज] कुब्जक संस्थान और [द्धंणाराए] अर्द्धनाराच शरीर / संहनन (दो प्रकृतियों), [इत्थिवेदे] स्त्रीवेद् (१ प्रकृति), [सादि] स्वाति संस्थान और [णाराए] नाराचशरीर संहनन (३ प्रकृतियों), [णाग्गोध] न्योग्रोधपरिमंडलसंस्थान [य] और [दुग] दो-दो [वज्जणाराए] वज्रनाराचशरीरसंहनन (दो प्रकृतियों), [मणु] संयोग रूप मनुष्य गति / मनुष्यानुपूर्वी, [ओराल] औदारिक शरीर / औदारिक अंगोपांग और [वज्जे] वज्रऋषभनाराच शरीर संहनन (५ प्रकृतियों) के २९वे, ३०वे, ३१वे, ३२वे और ३३वे बंध व्युच्छिति के स्थान है ।
उपर्युक्त आयु (३३ वे स्थान) से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उतर कर [अथिर] अस्थिर [असुभजस] अशुभ, अयश:कीर्ति [अरदी] अरति, [सोय] शोक और [असादे] असातावेदनीय,छः प्रकृति का युगपत बंधव्युच्छेद [होंति] होता है । इस प्रकार [बंधोसरणट्ठाणा] बंध व्युच्छित्ति के कुल [चोतिसा] चौतीस [स्थाननी] स्थान है । ये [भव्वा] भव्य और [अभव्वेसु] अभव्य दोनों जीवों के [सामाण्णा] समान रूप है ।

  बोधिनी 

बोधिनी :


आयु:प्रति निरयद्विकं,सूक्ष्मत्रयं सूक्ष्मदव्यं प्रत्येकं;;बाद्र्युतं द्वे पदे अपूर्णयुतं द्वित्रिचतु: असंज्ञी संज्ञिषु ॥११॥;;अष्टौ अपूर्णपदेष्वपि पूर्णेन युतेषु तेषु तुर्येपदे;;एकेन्द्रियमातपः स्थावरनाम च मेलयितव्यम् ॥१२॥;;तिर्गद्विकोध्योतोऽपि च नीचै:अप्रशस्तगमनं दुर्भगत्रिकं;;हुंडा संप्राप्तेऽपि च नपुंसकं वामनकीलिते ॥१३॥;;कुब्जार्धनाराचं स्त्रीवेदं च स्वातिनाराचे;;न्यग्रोधवज्रनाराचे मनुष्यौदारिका द्वीकवज्रे॥१४॥;;अस्थिर-अशुभायश: अरति: शोकासते च भवंति चतुस्त्रिंशं;;बंधापसरणस्थानानि भव्याभव्येषु सामान्यानि॥१५॥
प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यदृष्टि जीव के प्रकृति बन्धापसरण के क्रम से स्थान है -
  1. पहिले नरकायु का व्युच्छित्ति स्थान है -- यहाँ से उपशम सम्यक्त्व तक नरकायु का बंध नही होता । ७००-८०० सागरोपम से हीन अंत:कोडाकोड़ी सागर प्रमाण स्थिति को जिस समय बाँधने लगता है, उसी समय से नरकायु प्रकृति बंध से व्युच्छिन्न होती है ।
  2. दूसरा तिर्यंचायु का व्युच्छित्ति स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे पसरण करके तिर्यंचायु की बन्ध व्युच्छित्त्ती हो जाती है ।
  3. तीसरा मनुष्यायु का व्युच्छित्ति स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम-शत-पृथकत्व नीचे उत्तर कर मनुष्यायु का बन्ध व्युच्छेद होता है ।
  4. चौथा देवायु का व्युच्छिति का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उतर कर देवायु का बन्ध-व्युच्छित्ति होती है । यहाँ प्रथमोपशम सम्यक्त्व की अपेक्षा से आयु-बंध का अभाव है इस लिए सर्व आयु-बंध की व्युच्छत्ति कही है ।
  5. पांचवा व्युच्छित्ति स्थान नरक गति-नरकगत्यानुपूर्वी का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उतर कर नरकगति और नरक गत्यानुपूर्वी प्रकृति का एक साथ का बन्ध-व्युच्छेद होता है ।
  6. छठा संयोग रूप सूक्ष्म, अपर्याप्त-साधारण शरीर का स्थान है उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उतर कर सूक्ष्म-अपर्याप्त-साधारण शरीर प्रकृति का युगपत् बन्ध व्युच्छेद होता है । यहां संयोग-रूप तीनों का मिलाप है और बंध यही तक होता है किन्तु इनमे कोई प्रकृति बदले तो आगे भी इन्ही प्रकृति विषय का कोई प्रकृति का बंध हो सकता है संयोग से कहने का अभिप्राय यही है ।
  7. संयोग रूप सूक्ष्म, अपर्याप्त, प्रत्येक का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपमशतपृथकत्व नीचे उत्तर कर सूक्ष्म-अपर्याप्त-प्रत्येकशरीर, तीनों प्रकृतियो का एक साथ बन्ध व्युच्छेद होता है ।
  8. संयोगरूप बादर, अपर्याप्त, साधारण शरीर का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उतर कर बादर-अपर्याप्त-साधारण शरीर, तीनों प्रकृतियो का युगपत् बन्धव्युच्छेद होता है,
  9. संयोग रूप बादर, अपर्याप्त, प्रत्येकशरीर का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उत्तर कर बादर-अपर्याप्त-प्रत्येक शरीर, तीनों प्रकृतियो का एक साथ बन्ध व्युच्छेद होता है,
  10. संयोगरूप द्वीन्द्रिय जाति, अपर्याप्त का स्थान है, उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उत्तर कर द्वीन्द्रिय जाति और अपर्याप्त, दोनों प्रकृति का बन्ध-व्युच्छेद युगपत् होता है ।
  11. संयोग रूप त्रिइन्द्रिय जाति, अपर्याप्तक का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उत्तर कर त्रिइन्द्रिय जाति और अपर्याप्त, दोनों प्रकृतियों का बन्ध-व्युच्छेद युगपत् होता है ।
  12. संयोग रूप चतुरिंद्रिय जाति, अपर्याप्तक का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उत्तर कर चतुर इन्द्रिय जाति और अपर्याप्त, दोनों प्रकृतियो का बन्ध-व्युच्छेद युगपत् होता है ।
  13. संयोग रूप असंज्ञी पंचेन्द्रिय जाति, अपर्याप्तक का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उत्तर कर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जाति और अपर्याप्त, दोनों प्रकृतियों का बन्ध-व्युच्छेद युगपत् होता है ।
  14. संयोग-रूप संज्ञी पंचेन्द्रिय जाति, अपर्याप्तक का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उत्तर कर संज्ञी पंचेन्द्रिय जाति और अपर्याप्त, दोनों प्रकृतियों की बन्ध से व्युच्छित्ति युगपत् होती है ।
  15. संयोग-रूप सूक्ष्म, पर्याप्त-साधारण शरीर का स्थान है -- उपर्युक्त आयु - (१४नंबर) से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उतर कर सूक्ष्म-पर्याप्त-साधारण शरीर प्रकृति का युगपत् बन्ध व्युच्छेद होता है । यहां संयोग रूप तीनों का मिलाप है और बंध यहीं तक होता है किन्तु इनमे कोई प्रकृति बदले तो आगे भी इन्ही प्रकृति विषय का कोई प्रकृति का बंध हो सकता है संयोग से कहने का अभिप्राय यही है ।
  16. संयोग-रूप सूक्ष्म, पर्याप्त, प्रत्येक का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम-शत-पृथकत्व नीचे उत्तर कर सूक्ष्म-पर्याप्त-प्रत्येक शरीर, तीनों प्रकृतियों का एक साथ बन्ध व्युच्छेद होता है ।
  17. संयोग रूप बादर, पर्याप्त, साधारण शरीर का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उत्तर कर बादर-पर्याप्त-साधारण शरीर, तीनों प्रकृतियों का युगपत् बन्ध-व्युच्छेद होता है,
  18. संयोग रूप बादर-पर्याप्त प्रत्येक शरीर एकेन्द्रिय-आतप-स्थावर का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शतपृथकत्व नीचे उतर कर बादर, पर्याप्त, प्रत्येक-शरीर, एकेन्द्रिय, आतप, स्थावर, इन ६ प्रकृतियो की युगपत बन्ध व्युच्छित्ति होता है,
  19. संयोग रूप द्वीन्द्रियजाति, पर्याप्त का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उत्तर कर द्वीन्द्रिय जाति और पर्याप्त, दोनों प्रकृति का बन्ध-व्युच्छेद युगपत् होता है ।
  20. संयोग रूप त्रिइन्द्रिय जाति, पर्याप्त का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उत्तर कर त्रिइन्द्रियजाति और पर्याप्त, दोनों प्रकृतियों का बन्ध-व्युच्छेद युगपत् होता है ।
  21. संयोग रूप चतुरिंद्रिय जाति, पर्याप्त का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उतर कर चतुर इन्द्रिय जाति और पर्याप्त, दोनों प्रकृतियो का बन्ध-व्युच्छेद युगपत् होता है ।
  22. संयोग रूप असंज्ञी पंचेन्द्रिय जाति, पर्याप्त-का स्थान है -- उपर्युक्त आयु से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उत्तर कर असंज्ञी पंचेन्द्रिय जाति और पर्याप्त, दोनों प्रकृतियो का बन्ध-व्युच्छेद युगपत् होता है ।
  23. संयोगरूप तिर्यंचगति और तिर्यंचानुपूर्वी, उद्योत का स्थान है - (संख्या २२ की) उपर्युक्त (आयु से) सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उत्तर कर तिर्यंचगति, तिर्यंचानुपूर्वी और उद्योत-तीनों प्रकृतियो का बन्ध-व्युच्छेद युगपत् होता है ।
  24. नीच गोत्र का स्थान चौबीसवाँ है -- उपर्युक्त (आयु से) सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उत्तर कर नीच गोत्र प्रकृति की बंध व्युच्छित्ति होती है ।
  25. अप्रशस्त विहायोगगति, त्रियक -- दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय का स्थान है - उपर्युक्त (आयु से) सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उत्तर कर अप्रशस्तविहायोगगति, त्रियक -- दुर्भग, दुःस्वर और अनादेय चार प्रकृतियां बन्ध से व्युच्छिन्न हो जाती है ।
  26. हुंडासंस्थान-असंप्राप्तासृपाटिका संहनन की व्युच्छिति स्थान है -- उपर्युक्त (आयु से) सागरोपम-शतपृथकत्व नीचे उतर कर हुंडासंस्थान-असंप्राप्तासृपाटिका संहनन, दो प्रकृतियाँ बंध से व्युच्छिन्न हो जाती है ।
  27. नपुंसक वेद का स्थान है -- उपर्युक्त (आयु से) सागरोपम-शतपृथकत्व नीचे उतर कर नपुंसक-वेद प्रकृति का बंध व्युच्छेद होता है ।
  28. वामन-संस्थान व कीलित संहनन का स्थान है -- उपर्युक्त (आयु से) सागरोपम-शतपृथकत्व नीचे उतर कर वामन संस्थान व कीलित संहनन, दोनों प्रकृतियो का बन्ध व्युच्छित्ति युगपत् प्राप्त होती है ।
  29. कुब्जक संस्थान और अर्द्धनाराचशरीरसंहनन प्रकृति का बंधव्युच्छिति का स्थान है -- उपर्युक्त आयु (२८वे स्थान) से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उतर कर कुब्जक संस्थान और अर्द्धनाराचशरीर-संहनन, दोनों प्रकृतियो का युगपत् बंध व्युच्छेद होता है ।
  30. स्त्रीवेद् प्रकृति का बंध व्युच्छिति स्थान है -- उपर्युक्त आयु (२९ वे स्थान) से सागरोपम शत पृथकत्व नीचे उतर कर स्त्रीवेद प्रकृति का बंध व्युच्छेद होता है ।
  31. स्वाति संस्थान और नाराचशरीरसंहनन प्रकृति बंध का व्युच्छिति स्थान है -- उपर्युक्त आयु (३० वे स्थान) से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उतर कर स्वाति संस्थान और नाराचशरीरसंहनन, दोनों प्रकृतियो की बंध व्युच्छित्ति युगपत् होती है ।
  32. न्योग्रोधपरिमंडल-संस्थान और वज्रनाराचशरीरसंहनन प्रकृति बंध का व्युच्छिति स्थान है -- उपर्युक्त आयु (३१वे स्थान) से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उतर कर नयोग्रोधपरिमंडल संस्थान और वज्रनाराचशरीर संहनन,दोनों प्रकृतियो की बंध व्युच्छित्ति युगपत् होती है ।
  33. संयोग रूप मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्रऋषभनाराच-संहनन उपर्युक्त आयु (३२ वे स्थान) से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उतर कर संयोग रूप मनुष्यगति, मनुष्यानुपूर्वी, औदारिक शरीर, औदारिक अंगोपांग, वज्र ऋषभ नाराच संहनन ५ प्रकृति की युगपत बंध व्युच्छित्ति होती है ।
  34. संयोग रूप अस्थिर-अशुभ, अयश:कीर्ति-अरति, शोक-असातावेदनीय प्रकृतियों के बंध व्युच्छिति के स्थान है -- उपर्युक्त आयु (३३ वे स्थान) से सागरोपमशत पृथकत्व नीचे उतर कर अरति-शोक, अस्थिर-अशुभ, अयश: कीर्ति-असातावेदनीय, छः प्रकृति का युगपत बंध व्युच्छेद होता है ।


शंका – ३४ प्रकृतियों के बन्धव्युच्छेद का यही क्रम क्यों है?

उत्तर –
इन ३४ बंध पसरण की प्रकृतियों के अशुभ,अशुभतर और अशुभतम के भेद की अपेक्षा से यह बन्धव्युच्छेद का क्रम है।बन्धव्युच्छेद का यह क्रम विशुद्धि प्राप्त भव्य और अभव्य मिथ्यादृष्टि जीवों में साधारण अर्थात समान है।(ध,पु.६पृ.१३६-१३९)।किन्तु जय धवलाकार में कहा है कि, 'जो अभव्य के योग्य विशुद्धि से विशुद्ध हो रहा है उसके तत्प्रायोग्य अंत:कोडाकोड़ी-सागर-प्रमाण स्थिति-बंध में एक भी कर्म-प्रकृति की बन्ध-व्युच्छित्ति नही होती' (ज.ध.पु. १२ ,पृ.२२१)। इस सन्दर्भ में दो मत है । इसी प्रकार ३४ स्थिति बन्धापसरण के दो मत है -

(ध.पु.६पृ.१३६-१३९) प्रत्येक बन्धापसरण सागरोपमशत पृथकत्व स्थितिबंध का घटने का क्रम बताया है, किन्तु (ज.ध.पु.१२,पृ.२२१-२२४) में सागरोपम-पृथकत्व स्थिति-बंध घटने का उल्लेख है ।

अंतिम ३४ वे बन्धापसरण में अस्थिर-अशुभ, अयश:कीर्ति-अरति, शोक-असातावेदनीय प्रकृतियों के बंध व्युच्छिति प्रथमोपशम-सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि जीव के हो जाती है । यद्यपि ये प्रकृतियाँ प्रमत्त-गुणस्थान तक बंध योग्य है, तथापि यहाँ इनकी बन्ध-व्युच्छित्ति का कथन विरोध को प्राप्त नही होता है, क्योंकि उन प्रकृतियों के बंध योग्य संक्लेश का उल्लंघन कर, उनकी प्रतिपक्ष-भूत प्रकृतियों के बंध की निमित्त-भूत विशुद्धि से वृद्धि को प्राप्त हुए सर्व-विशुद्ध, इस जीव के उन प्रकृतियों की बंध-व्युच्छित्ति होने में कोई विरोध नही (ज.ध.पु. १२,पृ २२४-२२५)। इन उपर्युक्त प्रकृतियों के बंध से व्युच्छिन्न होने पर अवशिष्ट प्रकृतियों को सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि तिर्यंच और मनुष्य तब तक बांधता है जब तक वह मिथ्यादृष्टि गुणस्थान के चरम समय को प्राप्त होता है । (ध.पु. ६,पृ १४०)