+ नर, तिर्यंच और देवगति में, रत्नादि ६ पृथिवियों और सनत्कुमार आदि दश कल्पों में और आनतकल्प आदि में बंधपसरणों के निर्देश - -
णर तिरियाणं ओघो भवणति-सोहम्मजुगलाए विदियं
तदीयं अट्ठारसमं तेवीसदिमादि दसपदं चरिमं ॥16॥
ते चेव चोदस् पदा अट्ठार समेण हीणया होंति
रयणादिपुढविछक्के सणक्कुमरादिदसकप्पे ॥17॥
ते तेरस विदिएण य तेवीसदिमेण चावि परिहीणा
आणद कप्पादुवरिमगेवेज्जंतो त्ति ओसरणा ॥18॥
अन्वयार्थ : [णर] मनुष्य और [तिरियाणं] तिर्यंच गति में [ओघो] साधारण अर्थात ३४ बंधापसरण होते हैं । जिनके बंध योग्य ११७ प्रकृतियों में से, आदि के छ स्थान विषय ९; १८वे स्थान विषय ऐकेन्द्रिय-३; १९, २०, २१ वे संबंधी द्वी, त्रि, चतुर इन्द्रिय-३ प्रकृति और २३वें ३४वें तक १२ स्थान संबंधी ३१, कुल ४६ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है । शेष ७१ बंधने योग्य रहती है । [भवणति] भवनत्रिक और [सोहम्मजु] सौधर्म [जुगलाए] युगल में [विदियं] दूसरा, [तदीयं] तीसरा, [अट्ठारसमं] अठारहवां, [तेवीसदिमादि] तेईसवें को आदि लेकर ३२ वे तक [दसपदं] १० स्थानों तक तथा [चरिमं] अंतिम ३४वां कुल १४ बन्धापसरण होते हैं जिनमे ३१ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति हो जाती है ।
होते है।
[रयणादि] रत्नप्रभादि [छक्के][पुढ] पृथ्वियों के [वि] विषय में [ते] उपर्युक्त [अथण] कहे गए [चोदस्पदा] १४ प्रकृति बंध प्रसारणों में [अट्ठार] १८वें [परिहीणा] अतिरिक्त १३ स्थान होते है जिसमे २८ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है । वहां बंध योग्य सौ में से ७२ का ही बंध शेष रहता है।
[आणद] आनत [कप्पा] कल्प से लेकर उपरिम ९वे [गेवेज्जंतो] गैवियक [दुवरिम] पर्यंत उपर्युक्त [तेरस] तेरह पृकृति बंध [ओसरणा] पसरणों स्थानों में से [विदिएण] दूसरा [य] और [तेवीसदिमेण] २३वा बन्धापसरण नही होता शेष ११ बन्धापसरण [त्ति] होते है। इनमे २४ प्रकृतियों की व्युच्छित्ति होती है ।

  बोधिनी 

बोधिनी :


नरतिश्र्चामोघ: भवनत्रि सौधर्मयुगलके द्वितीयं;;तृतीयं अष्टादशमं त्रयो विंशत्यादिदशपदं चरमम्;;तानि चैव चतुर्दशपदानि अष्टादशेन हीनानि भवन्ति;;रत्नादिपृथिवीषट्के सनत्कुमारादिदशकल्पे ॥१७॥;;तानि त्रयोदश द्वितीयेन च त्रियोविंशतिकेन चापि परिहीनानि;;आनतकल्पाद युपरिम ग्रैवेयकान्त मित्य पसरणा:
१ - प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मनुष्य और तिर्यन्चों के पूर्वाक्त ३४ बन्धापसरण होते है जिनमे ४६ प्रकृतियों की बन्ध-व्युच्छित्ति है ।

२ - प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख देव तथा सातवे नरक के अतिरिक्त छः पृथिवींयों के नारकी जीवों के बंधने वाली प्रकृतिया - असातावेदनीय, स्त्रीवेद, नपुंसकवेद, अरति, शोक, नरकगति, देवगति, ऐकेन्द्रिय से चतुरेन्द्रिय जाति (४) वैक्रयिक-शरीर, आहारक शरीर, समचतुरसंस्थान के अतिरिक्त ५ संस्थान, वैक्रयिक शरीर अंगोपांग, आहार शरीर अंगोपांग, वज्रऋषभनाराचसंहनन के अतिरिक्त ५ संहनन, नरकगति प्रायोग्यानुपूर्वी, तिर्यग्गति प्रायोग्यानुपूर्वी, देवगतिप्रायोग्यानुपूर्वी, अप्रशस्त विहायोगगति, आतप, उद्योत, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण शरीर, अस्थिर, अशुभ, दुर्भाग, दुःस्वर, अनादेय, अयश:, कीर्ति, नीच-गोत्र और तीर्थंकर । इनमे से अपनी अपनी बंध-अयोग्य प्रकृतियों को घटाकर बन्धापसरणों द्वारा बन्धव्युच्छेद हो जाता है ।

भवनत्रिक देवों व् सौधर्मेन्द्र -- ऐशानस्वर्ग केदेवो में तिर्यगायु, मनुष्ययु, एकेन्द्रिय, आतप, तिर्यंच चगति, तिर्यंच गत्यानुपूर्वी, उद्योत, नीच गोत्र, अप्रशस्तविहयोगगति, दुर्भग, दुःस्वर, अनादेय, हुंडकसंस्थान, कुब्जकसंस्थान, अर्द्ध नाराचसंहन, असंप्राप्तसृपाटिकासंहनन, नपुंसक वेद,स्त्री वेद, स्वाति संस्थान, वामन संस्थान, कीलितसंहनन , ,

न्योगरोधसंस्थान, वज्र नाराच संहनन, अस्थिर अशुभ, अयश:कीर्ति, अरति, शोक, असतवेदनीय, इन ३१ प्रकृतियों के बंध व्युच्च्छित्ति सम्यक्त्व के अभिमुख जीव की होती है ।

प्रथमादि ६ नरक और तीसरे स्वर्ग से १२ वे स्वर्ग पर्यन्त जीवों में उक्त ३१ प्रकृतियों में से बंध के अयोग्य एकेन्द्रिय, स्थावर और आतप को कम कर, २८ प्रकृतियों की बंध व्युच्छित्ति सम्यक्त्व के अभिमुख जीव की होती है । १३वे से १६ वे स्वर्ग तथा ९ वें ग्रैवियेक पर्यन्त देवों में उक्त २८ प्रकृतियों में से बंध के अयोग्य तिर्यगायु, तिर्यंच गति, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी और उद्योत, ४ प्रकृति कम करने पर २४ प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति अभिमुख जाए के होती है ।