+ सातवे नरकपृथिवी में बन्धापसरण -
ते चेवेक्कार पदा तदिऊणा विदियठाणसंपत्ता
चउवीसदि मेणू णा सत्तमिपुढविम्हि ओसरणा ॥19॥
अन्वयार्थ : सातवी पृथ्वी में, [ते] गाथा १८ में [चेवेक्कार] उल्लेखित ११ [पदा] बन्धापसरण में से [चउवीसदिमेणू] चौबीसवाँ बन्धापसरण [णा] नही होता, किन्तु [विदिय] दूसरा [ठाण] स्थान / बन्धापसरण [संपत्ता] होता है । इस प्रकार [सत्त] सातवी [मिपुढविम्हि] पृथ्वी केवल १० [ओसरणा] बन्धापसरण होते हैं ।

  बोधिनी 

बोधिनी :


तानि चैवैकादशपदानि तृतीयोनानि द्वितीयस्थान संयुक्तानि;;चतुर्विंशतिकेनोनानि सप्तमीपृथिव्यामपसरणानि॥१९॥
सातवें नरक में मनुष्यायु बंध योग्य नही है इसलिए ११ में से तीसरा बन्धपसरण कम किया है। प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख सातवे नरक के नारकी की नीचगोत्र की बन्ध-व्युच्छित्ति नही होती (ज.ध. पु.१२,पृ २२३;ध.पु. ८,पृ ११०,गो.क.गा.१०७) इसलिए २४ वां बंधपसरण भी कम किया है। मिथ्यादृष्टि सप्तम पृथ्वीस्थ नारकी के तिर्यंचायु बंध योग्य है,किन्तु प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख जीव के तिर्यंचायु बंधा व्युच्छिति हो जाती है इसलिए दूसरा बंधापसरण मिलाया गया है।इस प्रकार सप्तम नरक में १० बन्धापसरण होते है ,जिनके द्वारा २३ प्रकृतियों की बंधा व्युच्छिति होती है । सप्तम नरक में बंध योग्य ९६ प्रकृतियाँ है (गो. क. गा. १०५-१०७ की मूल टीका,ज.ध.पु.१२ पृ.;क.पा.सुत्त पृ. ६१९) उनमे से २३ कम करने पर ७३ प्रकृतियाँ बंध योग्य शेष रहती है। इन ७३ में से उद्योत प्रकृति भजनीय है अर्थात्त बंध हो भी होता है और नही भी होता है । इस प्रकार सातवी पृथ्वी में ७२ अथवा ७३ प्रकृतियों का बंध होता है ।

शंका – तिर्यग्गति, तिर्यगत्यानुपूर्वी, उद्योत और नीच गोत्र की बंध व्योच्छित्ति सातवे नरक में क्यों नही होती?

समाधान –
नहीं होती ,क्योकि भव संबंधी संक्लेश के कारण,शेष गतियों के बंध के प्रति अयोग्य, ऐसे सातवीं पृथिवी के नारकी मिथ्यादृष्टि के तिर्यंच गति तिर्यंचगत्यानुपूर्वी । उद्योत, और नीच गोत्र को छोड़कर सदाकाल इनकी प्रतिपक्षी स्वरुप प्रकृतियों का बंध नही होता है । (ज.ध.पु.१२,पृ.२२३;गो. क. गा.१०७) तथा विशुद्धि के वष से ध्रुव बंधी प्रकृतियों का बंध व्युच्छेद नही होता (ध.पु.८,पृ.११०;ज. ध.पु.१३ पृ.२२६), अन्यथा उस विशुद्धि वश ज्ञानावरणीयादि प्रकृतियों के भी बंधव्युच्छित्ति का प्रसंग प्राप्त होगा, किन्तु ऐसा है नही । क्योकि वैसे मानने से अनवस्था दोष आता है । (ध.पु. ६,पृ १४३-१४४ )