+ मनुष्य और तिर्यंचगति में प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि जीव के द्वारा बध्यमान प्रकृतिया -
घादिति सादं मिच्छं कसायपुं हस्सरदि भयस्स दुगं
अपमत्तडवीसच्चं बंधंती विसुद्धणरतिरिया ॥20॥
अन्वयार्थ : [विसुद्ध] विशुद्ध [णर] मनुष्य और [तिरिया] तिर्यंच; मिथ्यादृष्ट, गर्भज, संज्ञी, पंचेन्द्रिय, पर्याप्त, प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख प्रायोग्यलब्धि में स्थित, जिसने ३४ बंध पसरणो में ४६ प्रकृतियों की बन्धव्युच्छित्ति कर दी है),; [घादिति] तीन घातिया कर्मों -- (५ ज्ञानावरण -- मति, श्रुत, अवधि, मन:पर्यय और केवल ज्ञान वरण ; ९ दर्शनावरण -- चक्षु, अचक्षु, अवधि, केवल दर्शना वरण, स्त्यानगृद्ध, निद्रानिद्रा, प्रचलाप्रचला, निद्रा, प्रचला; ५ अंतराय -- दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य); [सादं] सातावेदनीय, [मिच्छं] मिथ्यात्व, [कसाय] १६ कषाय (अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण, प्रत्यानाख्यानावरण और संज्ज्वलन - क्रोध, मान, माया, लोभ), [पुं] पुरुषवेद, [हस्सरदि] हास्य, रति, [भयस्स दुगं] भय, जुगुप्सा; [अपमत्तडवीस] अप्रमत्तगुणस्थान संबंधी-२८, [उच्च] उच्च गोत्र, इस प्रकार कुल ७१ प्रकृतियों का [बंधंती] बंध करते है । (ध.पु.६,पृ. १३३-१३४;ज.ध.पु. १२ पृ २११,२२५-२२६)

  बोधिनी 

बोधिनी :


घातित्रयं सातं मिथ्यं कषायपुंहास्यरतय:भयस्स द्विकम्;;अप्रमत्ताष्टविंशोच्चं बध्नन्ति विशुद्धनरतिर्यंच: