+ अप्रमत्त गुणस्थान में बंधने वाली २८ प्रकृतियाँ -
देव-तस वण्ण-अगरुचउक्कं समचउरतेजकम्मइं
सग्गमणं पंचिंदी थिरादिछण्णिमिणमडवीसं ॥21॥
अन्वयार्थ : [देव] देव [चउक्कं] चतुष्क (देवगति,देवगत्यानुपूर्वी,वैक्रयिकशरीर,वैक्रयिकशरीरअंगोपांग), [तस] त्रस [चउक्कं] चतुष्क(त्रस,बादर,पर्याप्त, प्रत्येकशरीर), [वण्ण] वर्ण [चउक्कं] चतुष्क(वर्ण,गंध,रस ,स्पर्श), [अगरु] अगुरुलघु [चउक्कं] चतुष्क (अगुरुलघु,उपघात,परघात,उच्छ्वास), [समचउर] समचतुरस्र-संस्थान, [तेज] तेजस, [कम्मइं] कार्माण-१, [सग्गमणं] शुभ विहायोगति, [पंचिंदी] पंचेन्द्रिय, [थिरादिछ] स्थिरादि (स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति) छः-६ और [ण्णिमिण] निर्माण, अप्रमत्तगुण स्थान संबंधी [मडवीसं] २८ कर्म प्रकृतियाँ अप्रमत्त गुणस्थान संबंधी बंधने वाली है ।

  बोधिनी 

बोधिनी :


देव त्सवर्णागुरु चतुष्कं समचतुरस्रतेज: कार्माणकम्;;सद्गमनं पंचेंद्रिय स्थिरादिषण्णिर्माणमष्टाविंशम् ॥