बोधिनी :
तत् सुरचतुष्कहीनं नरचतुर्वज्रयुतं प्रकृति परिमाणं;;सुरषट्पृथिवीमिथिया: सिद्धापसरणा हिं बंधति ॥२२॥
प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख देव एवं प्रथम छः नरक के नारकी प्रायोग्यलब्धि में बन्धापसरण के करने के बाद; ज्ञानावरण-५, दर्शनावरण-९, वेदनीय-कर्म साता वेदनीय-१,मोहनीय कर्म -- मिथ्यात्व, कषाय-अन्नतानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन (क्रोध,मान,माया,लोभ)-१६, नोकषाय-पुरुषवेद हास्य, रति, भय, जुगुप्सा,(५), मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, औदारिक अगोपांग, तेजसशरीर, कार्माणशरीर, समचतुर स्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन,वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, मनुष्यप्रायोग्यनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास प्रशस्तविहायोगगति, त्रस, बादर,पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश:कीर्ति, निर्माण, उच्च गोत्र, अंतराय-५, कुल ७२ प्रकृतियों का बंध करते है ।(ध. पु. ६ पृ. ४०-१४१;ज. ध. पु. १२,पृ. २११-१२)
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