+ प्रथमोपशसम्यक्तव के अभिमुख देव और नारकी (छट्टी पृथिवी तक) द्वारा बढ़ी कर्म प्रकृतियाँ -
तं सुरचउक्कहीणं णरचउवज्जजुद पयडिपरिमाणं
सुरछ्प्पुढवीमिच्छा सिद्धोसरणा हु बंधति ॥22॥
अन्वयार्थ : [तं] उन,उक्त ७१ प्रकृतियों में से [सुर] देव [चउक्क] चतुष्क (देवगति,देवगत्यानुपूर्वी,वैक्रयिकशरीर और वैकिरियिकअंगोपांग) [हीणं] को कम करके [णर] मनुष्य [चउ] चतुष्क (मनुष्य गति, मनुष्यगत्यानुपूर्वी, औदरिक्शरीर और, औदारिक अंगोपांग) तथा [वज्ज] वज्र-ऋषभ-नाराच संहनन को [जुद] मिलाने से, [सिद्धोसरणा] बन्धापसरण [हु] करने के पश्चात, [मिच्छा] मिथ्यादृष्टि [सुर] देव और [छ्प्पुढवी] छटी पृथ्वी तक के [मिच्छा] मिथ्यादृष्टि नारकी, [परिमाणं] कुल ७२ [यडिप] प्रकृतियों का [बंधति] बंध करते है।

  बोधिनी 

बोधिनी :


तत् सुरचतुष्कहीनं नरचतुर्वज्रयुतं प्रकृति परिमाणं;;सुरषट्पृथिवीमिथिया: सिद्धापसरणा हिं बंधति ॥२२॥
प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख देव एवं प्रथम छः नरक के नारकी प्रायोग्यलब्धि में बन्धापसरण के करने के बाद; ज्ञानावरण-५, दर्शनावरण-९, वेदनीय-कर्म साता वेदनीय-१,मोहनीय कर्म -- मिथ्यात्व, कषाय-अन्नतानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन (क्रोध,मान,माया,लोभ)-१६, नोकषाय-पुरुषवेद हास्य, रति, भय, जुगुप्सा,(५), मनुष्यगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, औदारिक अगोपांग, तेजसशरीर, कार्माणशरीर, समचतुर स्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन,वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, मनुष्यप्रायोग्यनुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास प्रशस्तविहायोगगति, त्रस, बादर,पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश:कीर्ति, निर्माण, उच्च गोत्र, अंतराय-५, कुल ७२ प्रकृतियों का बंध करते है ।(ध. पु. ६ पृ. ४०-१४१;ज. ध. पु. १२,पृ. २११-१२)