+ सातवी पृथ्वी के नारकी द्वारा बंध प्रकृतियाँ -
तं णरदुगुच्चहीणं तिरियदु णीच जुद पयडिपरिमाणं
उज्जोवेण जुदं वा सत्तमखिदिगा हु बंधंति ॥23॥
अन्वयार्थ : प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख सातवी पृथ्वी का नारकी, [तं] पूर्वाक्त ७२ प्रकृतियों में से [णर] मनुष्य [दुगुच्च] द्विक; मनुष्यगति और मनुषगत्यानुपूर्वी तथा उच्च गोत्र को [हीणं] कम करने से तथा [तिरियदु] तिर्यंचगति [द्विक] द्विक ;तिर्यंच गति और तिर्यंचगत्यानुपूर्वी तथा [णीच] नीच गोत्र को [जुद] मिलाने से [पयडिपरिमाणं] ७२ प्रकृतियाँ का बंध करता है । यदि [उज्जोवेण] उद्योत प्रकृति [जुदं] मिलाई जाती है तो सातवी पृथ्वी का नारकी [सत्तमखिदिगा] ७३ प्रकृति का [हु] ही [बंधंति] बंध करते है ।

  बोधिनी 

बोधिनी :


तत् नर द्विकोच्चहीनं तिर्यग्द्विकं नीचयुतं प्रकृतिपरिमाणं;;उद्योतन युतं वा सप्तक्षितिगा हि बध्नन्ति ॥
प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख सातवे नरक के मिथ्यादृष्टि नारकी बन्धापसरण करने के पश्चात; ज्ञानावरण-५, दर्शनावरण-९, साता वेदनीय-१, मोहनीय कर्म;मिथ्यात्व,कषाय-अन्न-तानुबन्धी, अप्रत्याख्यान, प्रत्याख्यान, संज्वलन (क्रोध,मान,माया,लोभ)-१६, नोकषाय-५ -- पुरुषवेद हास्य, रति, भय, जुगुप्सा, तिर्यंचगति, पंचेन्द्रियजाति, औदारिकशरीर, औदारिकअगोपांग, तेजसशरीर, कार्माणशरीर, समचतुरस्रसंस्थान, वज्रऋषभनाराचसंहनन, वर्ण, गंध, रस, स्पर्श, तिर्यंचगत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, उपघात, परघात, उच्छ्वास, प्रशस्त विहायोगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यश:कीर्ति, निर्माण, निच्चगोत्र, अंतराय-५ -- कुल ७२ प्रकृतियां बांधता है । उद्योत प्रकृति को कदाचित वह बांधता है और कदाचित नही बांधता, यदि बांधता है तो ७३ प्रकृतियों को बांधता है अन्यथा ७२ प्रकृतियों को बांधता है । (ध.पु.६ पृ १४२-१४३;ज. ध. पु. १२ पृ.२१२)