+ सम्यक्त्व के अभिमुख मिथिदृष्टि जीव के स्थिति-अनुभाग बंध के भेद -
अंतों कोडाकोड़ीठिदिं अस्तथाणं सत्थगाणं च
बिचउठाणरसं च य बंधाणं बंधणं कुणदि ॥24॥
अन्वयार्थ : (प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख मिथ्यादृष्टि) बंधने योग्य कर्म प्रकृतियों का [अंतों] अंत: [कोडाकोड़ी] कोटाकोटिसागरोपम प्रमाण ही [ठिदिं] स्थिति-बंध [कुणदि] करता क्योकि वह विशुद्धतर परिणामों से युक्त होता है ,उससे अधिक स्थितिबंध असम्भव है तथा [अस्तथाणं] अप्रशस्त कर्म प्रकृतियों का [बि] द्वि [ठाण] स्थानीय अनंत अनंत गुणा घटते हुए [च] और [सत्थगाणं] प्रशस्त प्रकृतियों का [चउ] चतु: [ठाण] स्थानीय [रसं] अनुभाग [बंधणं] बंध प्रति समय अनंत अनंत गुणा वृद्धिंगत बांधता है।

  बोधिनी 

बोधिनी :


अंत:कोटाकोटिस्थितिं अशास्तनां शास्तनां च;;द्विचतु:स्थानरसं च च बंधानां बंधनं करोति ॥२४॥