मिच्छणथीणति सुरचउ समवज्जपसत्थ गमण सुभगतीयं
णीचुक्कस्सपदेसमणुक्कस्सं वा पबंधदि हु ॥25॥
अन्वयार्थ : [प] प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख [मिच्छ] मिथ्यात्व / अन्नतानुबन्धी चतुष्क , [णथीण] स्तयानगृद्धादि-त्रिक , [सुरचउ] देव-चतुष्क , [सम] समचतुरस्र-संस्थान, [वज्ज] वज्रवृषभनाराच-संहनन, [पसत्थ] प्रशस्त [गमण] विहायोगगति, [सुभगतीयं] सुभगादितीन , [णीच] नीच गोत्र, इन १९ कर्म प्रकृतियों का [उक्कस्स] उत्कृष्ट [वा] और [अणुक्कस्सं] अनुत्कृष्ट [पदेसं] प्रदेश [बंधदि] बंध [हु] करते हैं ।
बोधिनी
बोधिनी : मिथ्यानसत्यनत्रिकं सुरचतु:समवज्रप्रशस्तगमनसुभगत्रिकं;;नीचैरुत्कृष्टप्रदेशमनुत्कृष्टं वा प्रबध्नाति हि ॥२५॥
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