+ सत्त्व प्रकृतियों के स्थिति-अनुभाग और प्रदेश बंध -
अजहण्णमणुक्कस्सं ठिदितियं होदि सत्तपयडीणं
एवं पयडिचउक्कं बंघादिसु होदि पत्तेयं ॥32॥
अन्वयार्थ : [सत्तपयडीणं] उक्त सत्त्व प्रकृतियों का [ठिदितियं] स्थितित्रिक (स्थिति,अनुभाग और प्रदेश ) [अजहण्णमणुक्कस्सं] अजघन्य-अनुत्कृष्ट [होदि] होता है । [बंघादिसु] बन्धादि (बंध-उदय-उदीरणा) [पत्तेयं] प्रत्येक में इसी प्रकार [पयडिचउक्कं] प्रकृति चतुष्क (प्रकृति,स्थिति,अनुभाग और प्रदेश) [होदि] होता है।

  बोधिनी 

बोधिनी :


अजघन्यमनुत्कृष्टं स्थितित्रिकं भवति सत्त्व प्रकृतीनाम्;;एवं पर्कृतिचतुष्कं बंधादिषु भवति प्रत्येकम् ॥
१-आयुकर्म के अतिरिक्त उक्त प्रकृतियों का स्थिति-सत्कर्म, अंत: कोडा-कोड़ी-सागर होता है । आयु-कर्म का तत्प्रायोग्य स्थिति सत्कर्म होता है । ज्ञानावरण-५, दर्शनावरण-९, असाता वेदनीय-१, मोहनीय की मिथ्यात्व, १६ कषाय और ९ नोकषाय, सम्यक्त्व, सम्यमिथ्यात्व, नरक-गति, तिर्यंच-गति, एकेन्द्रियादि ४ जाति, ५ संस्थान, ५ संहनन, अप्रशस्तवर्ण, चतुष्क, नरक-गत्यानुपूर्वी, तिर्यंच-गत्यानुपूर्वी, उपघात, अप्रशस्त-विहायोगगति, स्थावर, सूक्ष्म, अपर्याप्त, साधारण, अस्थिर, अशुभ, दुर्भग, दुस्वर, अनादेय, अयश:कीर्ति, नीचगोत्र और अंतराय-५, इन प्रकृतियों का द्विस्थानीय लता-दारु या निम्ब-कांजिर, अनुभाग सतकर्म होता है ।

२-साता वेदनीय, मनुष्य-गति, देव-गति, पंचेन्द्रिय-जाति, औदारिक-शरीर, वैक्रयिक-शरीर, तेजस-शरीर, कार्माण-शरीर, तथा उन्ही के बंधन और संघात, समचतुरस्र-संस्थान, औदारिक शरीर अंगोपांग, वैक्रयिक शरीर अंगोपांग, वज्र वृषभ नाराचसंहनन, प्रशस्त-वर्ण-चतुष्क, मनुष्य-गत्यानुपूर्वी, देव-गत्यानुपूर्वी, अगुरुलघु, परघात, उच्छ्वास, आतप-उद्योत, प्रशस्त विहायोगगति, त्रस, बादर, पर्याप्त, प्रत्येकशरीर, स्थिर, शुभ, सुभग, सुस्वर, आदेय, यशकीर्ति, निर्माण, उच्च-गोत्र, इन प्रशस्त प्रकृतियों का चतु:स्थानीय अनुभाग सत्कर्म होता है ।

३-जिन प्रकृतियों का सत्कर्म है, उनका अजघन्य-अनुत्कृष्ट प्रदेश सत्कर्म होता है ।