बोधिनी :
तत: अभव्ययोग्यं परिणामं मुक्त्वा भव्यो हि;;करणं करोति क्रमश: अध:प्रवृत्तम अपूर्वमनिवृत्तिम् ॥३३॥
१-गुरुपदेश के द्वारा अथवा उसके अभाव में भी, अभव्य जीव के योग्य विशुद्धियों को प्राप्त करने के बाद भव्य जीवों के योग्य, अध:प्रवृत्त-करण संज्ञा वाली विशुद्धि में भव्य जीव परिणत होता है ।(ध. पु. ६,पृ २०६)जिस परिणाम विशेष के द्वारा दर्शनमोह का उपशमादि रूप विवक्षित भाव उत्पन्न किया जाता है उस विशेष परिणाम को करण कहते है (ज.ध.पु.१२ पृ २३३)।२-करण के तीन भेद -- अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृतिकरण है । ये तीनों करण क्रमश: होते हैं । अर्थात प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त होने वाले जीव के अध:प्रवृत्तकरण, अपूर्वकरण और अनिवृत्तिकरण के भेद से तीन प्रकार की विशुद्धियाँ होती है (ध.पु.६,पृ.२१४,ज.ध.पु.१२ पृ २३३,क. पा. सु.पृ.६२१) |