गुणसेढी गुणसकम ठिदिरसखंडं च णत्थि पढमम्हि
पडिसमयमणंतगुणं विसोहिवड्ढिहिं वड्ढदि हु ॥37॥
अन्वयार्थ : [पढमम्हि] प्रथम; अध:करण में [गुणसेढी] गुणश्रेणि, [गुणसकम] गुणसंक्रमण, [ठिदि] स्थिति [खंडं] खण्ड [च] और [रस] अनुभागखण्ड [णत्थि] नहीं होते, किन्तु [पडि] प्रति [समयम्] समय परिणामों में [अणंतगुणं] अनंतगुणी [वड्ढिहिं] वृद्धिंगत [विसोहि] विशुद्धि [वड्ढदि] बढती [हि] है ।
बोधिनी
बोधिनी : गुणश्रेणि:गुणसंक्रमं स्थितिरसखंडं च नास्ति प्रथमे;;प्रतिसमयमनंतगुणं विशुद्धिवृद्धिभि र्वर्धते हि ॥
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