सत्थाणमसत्थाणं चउविट्ठाणंरसं च बंधदि हु
पडिसमयणंतेण य गुणभजियक्मं तु रसबंधे ॥38॥
अन्वयार्थ : [सत्थाणमसत्थाणं] प्रशस्त प्रकृतिओं का प्रति समय अनंत गुणा [चउ] चतुः [ट्ठाणं] स्थानरूप [रसं] अनुभाग [बंधदि] बंध होता [हि] है [च] और अप्रशस्त प्रकृतियों का [पडि] प्रति [समयणंतेण] समय अनंतवे [गुणभज] भाग मात्र [वि] द्वी स्थानीय [क्मं] क्रम से [रसबंधे] अनुभाग बंध होता है ।
बोधिनी
बोधिनी : शस्तानामशस्तानां चतुर्द्विस्थानं रसं च बध्नाति हि;;प्रतिसमयमनंतेन च गुणभजितक्रमं तु रसबंधे ॥
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