तच्चरिमे ठिदिबंधो आदिमसम्मेण देससयलजमं
पडिवज्जमाणगस्स वि संखेज्जगुणेण हीणकमो ॥41॥
अन्वयार्थ : [तच्चरिमे] इस चरम [ठिदिबंधो] स्थिति बंध से [देससयलजमं] देश / सकल संयम सहित [आदिमसम्मेण] प्रथमोपशम सम्यक्त्व को प्राप्त करने वाले जीव के स्थिति बंध [संखेज्जगुणेण] संख्यात गुणा [हीण] हीन होता है ।

  बोधिनी 

बोधिनी :


तच्चरमे स्थितिबंध आदिमसम्येन देश सकलयमम्;;प्रतिपद्यमानस्यापि संख्येयगुणेन हीं क्रम:
यद्यपि अध:प्रवृत्तकरणकाल में जीव प्रति समय अनंतगुणी विशुद्धि प्राप्त करते हुए अत्यंत विशुद्ध होता जाता है, तथापि वह स्थिति-काण्डक व अनुभाग-काण्डक घात योग्य विशुद्धि को नहीं प्राप्त होता । इसलिए अध: प्रवृत्तकरण में वह इन दोनों काण्ड का घात नहीं कर पाता (ज.ध.पु. १२ पृ २३२) । यह गुण-संक्रमण और गुण-श्रेणि भी नहीं होता क्योंकि अध:प्रवृत्तकरण परिणामों में पूर्वोक्त चतुर्विध कार्यों के उत्पादन करने की शक्ति (विशुद्धि) का अभाव है; मात्र अनन्त-गुणी विशुद्धि के द्वारा प्रति-समय विशुद्धि को प्राप्त करते हुए यह जीव अप्रशस्त कर्मों के द्विस्थानीय (नींब-कान्जिर) अनुभाग को प्रति समय अनन्त-गुणा-हीन बांधता है और प्रशस्त कर्मों का गुड, खांड, शर्करा, अमृत रूप चतु:स्थानीय अनुभाग को प्रति समय अनन्तगुणा-अनंतगुणा बांधता है । अध:प्रवृत्त करण काल में एक स्थिति बंध का काल एक अन्तर्मुर्हूर्त मात्र ही है । एक-एक स्थिति-बंध का काल पूर्ण होने पर, पल्योपम के संख्यात्वें भाग हीन अन्य स्थिति बंध होता है । इस प्रकार संख्यात सहस्र बार स्थिति-बन्धापसरण होने पर अध:प्रवृत्त-करण काल समाप्त हो जाता है । अध:प्रवृत्त-करण के प्रथम समय संबंधी स्थिति बंध से ,उसी का अंतिम समय संबंधी स्थितिबंध संख्यातगुणा हीन होता है । यहीं पर (अध:प्रवृत्त करण के चरम में) प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अभिमुख जीव के जो स्थिति बंध होता है, उससे प्रथमोपशम सम्यक्त्व सहित संयमासंयम के अभिमुख जीव का स्थितिबंध संख्यातगुणा हीन होता है, इससे प्रथमोपशम सम्यक्त्व सहित सकलसंयम के अभिमुख जीव का अध:प्रवृत्त करण के चरम समय संबंधी स्थितिबंध संख्यातगुणाहीन होता है (ध.पु.६ पृ २२२-२२३;ज.ध.पु. १२ पृ २५८-५९)