संखेओ ओघो त्ति य, गुणसण्णा सा च मोहजोगभवा
वित्थारादेसो त्ति य, मग्गणसण्णा सकम्मभवा ॥3॥
संक्षेप ओघ इति च गुणसंज्ञा सा च मोहयोगभवा ।
विस्तार आदेश इति च मार्गणसंज्ञा स्वकर्मभवा ॥३॥
अन्वयार्थ : संक्षेप और ओघ यह गुणस्थान की संज्ञा है और वह मोह तथा योग के निमित्त से उत्पन्न होती है । इसी तरह विस्तार तथा आदेश यह मार्गणा की संज्ञा है और वह भी अपने-अपने योग्य कर्मों के उदयादि से उत्पन्न होती है । तथा चकार से गुणस्थान की सामान्य एवं मार्गणा की विशेष संज्ञा भी होती है ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

आगे संग्रहनय की अपेक्षा से प्ररूपणा के दो प्रकार को मन में रखकर गुणस्थान-मार्गणास्थानरूप दो प्ररूपणाओं के नामांतर कहते हैं -

संक्षेप ऐसी ओघ गुणस्थान की संज्ञा अनादिनिधन ऋषिप्रणीत मार्ग में रूढ़ है, प्रसिद्ध है । गुणस्थान का ही संक्षेप वा ओघ ऐसा भी नाम है । पुनश्च वह संज्ञा मोहयोगभवा अर्थात् दर्शन-चारित्रमोह और मन, वचन, काययोग उनसे उपजी है । यहां संज्ञा के धारक गुणस्थान को मोह-योग से उत्पन्नपना है । इसलिये उसकी संज्ञा के भी मोह-योग से उपजना उपचार से कहा है । पुनश्च सूत्र में चकार कहा है, इसलिये सामान्य ऐसी भी गुणस्थान की संज्ञा है; ऐसा जानना । पुनश्च उसीप्रकार विस्तार, आदेश ऐसी मार्गणास्थान की संज्ञा है । मार्गणा का विस्तार, आदेश ऐसा नाम है । सो यह संज्ञा अपनी-अपनी मार्गणा के नाम की प्रतीति के व्यवहार को कारण जो कर्म, उसके उदय से होती है । यहां भी पूर्ववत् संज्ञा के कर्म से उपजने का उपचार जानना । निश्चय से संज्ञा तो शब्द-जनित ही है । पुनश्च चकार से विशेष ऐसी भी मार्गणास्थान की संज्ञा गाथा में बिना कहे भी जाननी ।

विशेषार्थ – गुणस्थान के अन्य नाम - संक्षेप, ओघ, सामान्य । मार्गणा के अन्य नाम - विस्तार, आदेश, विशेष ।