आदेसे संलीणा, जीवा पज्जत्ति-पाण-सण्णाओ
उवओगो वि य भेदे, वीसं तु परूवणा भणिदा ॥4॥
आदेशे संलीना, जीवाः पर्याप्तिप्राणसंज्ञाश्च ।
उपयोगोऽपि च भेदे, विंशतिस्तु प्ररूपणा भणिताः ॥४॥
अन्वयार्थ : जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा और उपयोग इन सब भेदों का मार्गणाओं में ही भले प्रकार अन्तर्भाव हो जाता है । इसलिये अभेद विवक्षा से गुणस्थान और मार्गणा ये दो प्ररूपणा ही माननी चाहिये । किन्तु बीस प्ररूपणा जो कही हैं वे भेद विवक्षा से हैं ।
जीवतत्त्वप्रदीपिका
जीवतत्त्वप्रदीपिका :
आगे प्ररूपणा के दो प्रकारपने में अवशेष प्ररूपणाओं का अंतर्भूतपना दिखाते हैं -
मार्गणास्थान प्ररूपणा में जीवसमास, पर्याप्ति, प्राण, संज्ञा, उपयोग -- ये पांच प्ररूपणा संलीना अर्थात् गर्भित हैं, किसी प्रकार से उन मार्गणा-भेदों में अंतर्भूत हैं । वैसा होनेपर गुणस्थानप्ररूपण और मार्गणास्थान प्ररूपण इस तरह संग्रहनय की अपेक्षा से प्ररूपणा दो ही निरूपित होती हैं ।
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