मायालोहे रदिपुव्वाहारं, कोहमाणगम्हि भयं
वेदे मेहुणसण्णा, लोहम्हि परिग्गहे सण्णा ॥6॥
मायालोभयोः रतिपूर्वकमाहारं क्रोधमानकयोर्भयं ।
वेदे मैथुनसंज्ञा लोभे परिग्रहे संज्ञा ॥६॥
अन्वयार्थ : माया तथा लोभ कषाय में रति-पूर्वक आहार संज्ञा का एवं क्रोध तथा मान कषाय में भय संज्ञा का अंतर्भाव हो सकता है । तथा वेद कषाय में मैथुन संज्ञा का एवं लोभ कषाय में परिग्रह संज्ञा का अंतर्भाव हो सकता है ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

माया-कषाय और लोभ-कषाय में आहार-संज्ञा गर्भित है, क्योंकि आहार की वांछा रति-कर्म का उदय पहले होने पर होती है । पुनश्च रति-कर्म है, सो माया-लोभ कषाय राग का कारण है, वहां अंतर्भूत है । पुनश्च क्रोध-कषाय और मान-कषाय में भय-संज्ञा गर्भित है । क्योंकि भय के कारणों में द्वेष का कारणपना है, इसलिये द्वेषरूप जो क्रोध-मान कषाय, उनके कार्य-कारण अपेक्षा एकत्व होता है । पुनश्च वेद-मार्गणा में मैथुन-संज्ञा अंतर्भूत है, क्योंकि काम के तीव्रपने के वशीभूतपने से किया हुआ स्त्री-पुरुष युगलरूप जो अभिलाषा-सहित संभोगरूप मिथुन का कार्य, वह वेद के उदय से उत्पन्न पुरुषादिक की अभिलाषारूप कार्य है । इसतरह कार्य-कारणभाव से एकत्व का सद्भाव है । पुनश्च लोभ में परिग्रह-संज्ञा अंतर्भूत है, क्योंकि लोभ-कषाय होते ही ममत्व-भावरूप परिग्रह की अभिलाषा होती है, इसलिये यहां कार्य-कारण अपेक्षा एकत्व है । ऐसा हे भव्य ! तू जान !