एदे भावा णियमा, दंसणमोहं पडुच्च भणिदा हु
चारित्तं णत्थि जदो, अविरदअंतेसु ठाणेसु ॥12॥
एते भावा नियमाद् दर्शनमोहं प्रतीत्य भणिताः खलु ।
चारित्रं नास्ति यतो अविरतांतेषु स्थानेषु ॥१२॥
अन्वयार्थ : मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में जो नियम-रूप से औदयिकादिक भाव कहे हैं वे दर्शन मोहनीय कर्म की अपेक्षा से हैं क्योंकि चतुर्थ गुणस्थान पर्यन्त चारित्र नहीं पाया जाता ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

आगे कहे हैं ये जो भाव, इनके होने के नियम का कारण कहते हैं --

ऐसे पूर्वोक्त औदयिक आदि भाव कहे, वे नियम से दर्शनमोह के प्रतीत्य अर्थात् आश्रय कर, भणिताः अर्थात् कहे हैं प्रकटपने; क्योंकि अविरत पर्यंत चार गुणस्थानों में चारित्र नहीं है । इसकारण से वे भाव चारित्रमोह का आश्रय करके नहीं कहे हैं । इसकारण सासादन गुणस्थान में अनंतानुबंधी के क्रोधादि किसी एक कषाय का उदय विद्यमान होनेपर भी उसकी विवक्षा न करने से पारिणामिक भाव सिद्धांत में कथन किया है ऐसा तू जान । पुनश्च अनंतानुबंधी के किसी कषाय के उदय की विवक्षा से औदयिक भाव भी है ।