देसविरदे पमत्ते, इदरे व खओवसिमयभावो दु
सो खलु चरित्तमोहं, पडुच्च भणियं तहा उवरिं ॥13॥
देशविरते प्रमत्ते इतरे च क्षायोपशमिकभावस्तु ।
स खलु चारित्रमोहं प्रतीत्य भणितस्तथा उपरि ॥१३॥
अन्वयार्थ : देशविरत, प्रमत्त, अप्रमत्त, इन गुणस्थानों में चारित्र-मोहनीय की अपेक्षा क्षायोपशिमक भाव होते हैं तथा इनके आगे अपूर्वकरण आदि गुणस्थानों में भी चारित्र-मोहनीय की अपेक्षा से ही भावों को कहेंगे ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

आगे दो गाथाओं द्वारा देशसंयतादि गुणस्थानों में भावों का नियम दिखाते हैं -

देशविरत में, पुनश्च प्रमत्तसंयत में, पुनश्च इतर अर्थात् अप्रमत्तसंयत में क्षायोपशमिक भाव है । वहां देशसंयत की अपेक्षा से प्रत्याख्यान कषाय के उदय अवस्था को प्राप्त हुये जो देशघाति स्पर्धकों का अनंतवां भाग मात्र, उनका जो उदय, उनके सहित उदय को नहीं प्राप्त होते हुये ही निर्जरारूप क्षय होनेवाले जो विवक्षित उदयरूप निषेक, उन स्वरूप जो सर्वघाति स्पर्धक अनंत भागों में एक भाग बिना बहुभाग प्रमाण मात्र हैं उनके उदय का अभाव, वही है लक्षण जिसका ऐसा क्षय होते हुये, पुनश्च वर्तमान समय सम्बन्धी निषेक से ऊपर के निषेक जो उदय अवस्था को प्राप्त नहीं हुये, उनकी सत्तारूप जो अवस्था, वही है लक्षण जिसका ऐसा उपशम होते हुये देशसंयम प्रकटता है । इसलिये चारित्रमोह के आश्रय से देशसंयम क्षायोपशमिक भाव है, ऐसा कहा है । पुनश्च वैसे ही प्रमत्त-अप्रमत्त में भी संज्वलन कषायों के उदय में आये हुये जो देशघाति स्पर्धक जो अनंतवें भागरूप हैं उनके उदय से सहित और उदय को न प्राप्त होकर ही क्षयरूप होनेवाले जो विवक्षित उदय निषेक, उनरूप सर्वघाति स्पर्धक जो अनंत भागों में एक भाग बिना बहुभाग हैं, उनके उदय का अभाव, वही है लक्षण जिसका ऐसा क्षय होते हुए पुनश्च ऊपर के जो निषेक उदय को प्राप्त नहीं हुये, उनका सत्ता अवस्थारूप है लक्षण जिसका ऐसा उपशम होते हुये प्रमत्त-अप्रमत्त होता है । इसलिये चारित्रमोह अपेक्षा यहां सकलसंयम है, तथापि क्षायोपशमिक भाव है ऐसा कहा है, इसतरह श्रीमान् अभयचंद्र नामक आचार्य सिद्धांत चक्रवर्ती उनका अभिप्राय है ।

भावार्थ –- सर्वत्र क्षयोपशम का स्वरूप ऐसा ही जानना । जहां प्रतिपक्षी कर्म के देशघाति स्पर्धकों का उदय पाया जाय उन सहित, उदय-निषेक सम्बन्धी सर्वघाति स्पर्धकों का उदय नहीं पाया जाता (बिना ही उदय दिये) निर्जरा होती है, वही क्षय और जो उदय को न प्राप्त हुये आगामी निषेक उनका सत्तास्वरूप उपशम, उन दोनों के होनेपर क्षयोपशम होता है । सो स्पर्धकों का वा निषेकों का वा सर्वघाति-देशघाति स्पर्धकों के विभाग का आगे वर्णन होगा, इसलिये यहां विशेष नहीं लिखा है । सो यहां भी पूर्वोक्त प्रकार चारित्रमोह का क्षयोपशम ही है । इसलिये क्षायोपशमिक भाव देशसंयत, प्रमत्त, अप्रमत्त में जानना । उसीप्रकार ऊपर भी अपूर्वकरणादि गुणस्थानों में चारित्रमोह के आश्रय से भाव जानना ।