तत्तो उवरिं उवसमभावो, उवसामगेसु खवगेसु
खइओ भावो णियमा, अजोगिचरिमो त्ति सिद्धे य ॥14॥
तत उपरि उपशमभावः उपशामकेषु क्षपकेषु ।
क्षायिको भावो नियमात् अयोगिचरम इति सिद्धे च ॥१४॥
अन्वयार्थ : सातवें गुणस्थान से ऊपर उपशम-श्रेणीवाले आठवें, नौवें, दशवें गुणस्थान में तथा ग्यारहवें उपशांत-मोह में औपशिमक भाव ही होते हैं । इसीप्रकार क्षपक-श्रेणीवाले उक्त तीनों ही गुणस्थानों में तथा क्षीण-मोह, सयोग-केवली, अयोग-केवली इन तीन गुणस्थानों में और गुणस्थानातीत सिद्धों के नियम से क्षायिक-भाव ही पाया जाता है ।
जीवतत्त्वप्रदीपिका
जीवतत्त्वप्रदीपिका :
उसके ऊपर उपशमश्रेणी सम्बन्धी अपूर्वकरणादि चार गुणस्थानों में औपशमिक भाव है । क्योंकि वह संयम चारित्रमोह के उपशम ही से होता है । पुनश्च क्षपकश्रेणी सम्बन्धी अपूर्वकरणादि चार गुणस्थान और सयोग-अयोगकेवली, इनमें नियम से क्षायिक भाव है, क्योंकि उस चारित्र का चारित्रमोह के क्षय ही से उपजना होता है । पुनश्च वैसे ही सिद्ध परमेष्ठियों में भी क्षायिक भाव होता है, क्योंकि उस सिद्धपद का सकलकर्म के क्षय ही से प्रकटपना होता है ।
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