जीवतत्त्वप्रदीपिका : आगे पूर्व में नाममात्र कहे जो चौदह गुणस्थान, उनमें पहले कहा हुआ जो मिथ्यादृष्टि गुणस्थान, उसके स्वरूप का प्ररूपण करते हैं --
दर्शनमोहनीय के भेदरूप मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से जीव के अतत्त्वश्रद्धान है लक्षण जिसका ऐसा मिथ्यात्व होता है । पुनश्च वह मिथ्यात्व १) एकांत २) विपरीत ३) विनय ४) संशयित ५) अज्ञान -- ऐसे पांच प्रकार का है । वहां जीवादि वस्तु सर्वथा सत्त्वरूप ही है, सर्वथा असत्त्वरूप ही है, सर्वथा एक ही है, सर्वथा अनेक ही है - इत्यादि प्रतिपक्षी दूसरे भाव की अपेक्षा रहित एकांतरूप अभिप्राय, वह एकांत मिथ्यात्व है । - पुनश्च अहिंसादिक समीचीन धर्म का फल जो स्वर्गादिक सुख, उसको हिंसादिरूप यज्ञादिक का फल कल्पना से माने; वा जीव के प्रमाण से सिद्ध है जो मोक्ष, उसके निराकरण द्वारा मोक्ष का अभाव माने, वा प्रमाण से खंडित जो स्त्री के मोक्षप्राप्ति, उसके अस्तित्व वचन से स्त्री को मोक्ष है ऐसा माने इत्यादि एकांत अवलंबन द्वारा विपरीतरूप जो अभिनिवेश-अभिप्राय, वह विपरीत मिथ्यात्व है ।
- पुनश्च सम्यग्दर्शन, ज्ञान, चारित्र की सापेक्षता के रहितपने से गुरुचरणपूजनादिरूप विनय ही से मुक्ति है - यह श्रद्धान वैनयिक मिथ्यात्व है ।
- पुनश्च प्रत्यक्षादि प्रमाण द्वारा ग्रहण किया जो अर्थ, उसका देशांतर में और कालांतर में व्यभिचार अर्थात् अन्यथाभाव, वह संभवे है । इसलिये अनेक मत अपेक्षा परस्पर विरोधी जो आप्तवचन, उसके भी प्रमाणता की प्राप्ति नहीं है, इसलिये ऐसे ही तत्त्व है इसप्रकार निर्णय करने की शक्ति के अभाव से सर्वत्र संशय ही है - ऐसा जो अभिप्राय, वह संशय मिथ्यात्व है ।
- पुनश्च ज्ञानावरण, दर्शनावरण के तीव्र उदयसे संयुक्त जो एकेन्द्रियादिक जीव, उनका अनेकान्त स्वरूप वस्तु है इसतरह वस्तु के सामान्य भाव में और उपयोग लक्षण जीव है इसतरह वस्तु के विशेषभाव में जो अज्ञान, उससे उत्पन्न जो श्रद्धान, वह अज्ञान मिथ्यात्व है ।
इसतरह स्थूल भेदों के आश्रय से मिथ्यात्व का पांच प्रकारपना कहा, क्योंकि सूक्ष्म भेदों के आश्रय से असंख्यात लोकमात्र भेद होते हैं । इसलिये वहां व्याख्यानादिक व्यवहार की अप्राप्ति है ।
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