+ मिथ्याभाव को समझने के लिए उदाहरण -
मिच्छंतं वेदंतो, जीवो विवरीयदंसणो होदि
ण य धम्मं रोचेदि हु, महुरं खु रसं जहा जरिदो ॥17॥
मिथ्यात्वं विदन् जीवो विपरीतदर्शनो भवति ।
न च धर्मं रोचते हि मधुरं खलु रसं यथा ज्वरितः ॥१७॥
अन्वयार्थ : मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से उत्पन्न होने वाले मिथ्या-परिणामों का अनुभव करनेवाला जीव विपरीत श्रद्धानवाला हो जाता है । उसको जिस प्रकार पित्त ज्वर से युक्त जीव को मीठा रस भी अच्छा मालूम नहीं होता उसी प्रकार यथार्थ धर्म अच्छा नहीं मालूम होता - रुचिकर नहीं होता ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

आगे अतत्त्वश्रद्धान है लक्षण जिसका, ऐसे मिथ्यात्व को प्ररूपते हैं --

उदय आये हुए मिथ्यात्व को वेदयन् अर्थात् अनुभवता जो जीव, वह विपरीत-दर्शन अर्थात् अतत्त्व-श्रद्धान-संयुक्त है, अयथार्थ प्रतीति करता है । पुनश्च केवल अतत्त्व ही को नहीं श्रद्धता अपितु अनेकान्त-स्वरूप जो धर्म अर्थात् वस्तु का स्वभाव अथवा रत्नत्रय-स्वरूप मोक्ष का कारणभूत धर्म, वह नहीं रुचता है अर्थात् उसमें रुचिपूर्वक नहीं प्राप्त होता है । यहां दृष्टांत कहते हैं - जैसे ज्वरित अर्थात् पित्तज्वर सहित पुरुष, उसे मधुर-मीठा दुग्धादिक रस रुचता नहीं हैं, वैसे मिथ्यादृष्टि के धर्म रुचता नहीं है ।