+ मिथ्यादृष्टि के बाह्य चिह्न -
मिच्छाइट्ठी जीवो, उवइट्ठं पवयणं ण सद्दहदि
सद्दहदि असब्भावं उवइट्ठं या अणुवइट्ठं ॥18॥
मिथ्यादृष्टिर्जीवः उपदिष्टं प्रवचनं न श्रद्दधाति ।
श्रद्दधाति असद्भावं उपदिष्टं वा अनुपदिष्ट् ॥१८॥
अन्वयार्थ : मिथ्यादृष्टि जीव समीचीन गुरुओं के पूर्वापर विरोधादि दोषों से रहित और हित के करने वाले भी वचनों का यथार्थ श्रद्धान नहीं करता । किन्तु इसके विपरीत आचार्यार्भासों के द्वारा उपदिष्ट या अनपुदिष्ट असद्भाव का अथार्त् पदार्थ के विपरीत स्वरूप का इच्छानसुार श्रद्धान करता है ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

इस ही वस्तुस्वभाव के श्रद्धान को स्पष्ट करते हैं --

मिथ्यादृष्टि जीव है, वह उपदिष्ट अर्थात् अर्हंत आदिकों ने उपदेशित किया हुआ प्रवचन अर्थात् आप्त, आगम, पदार्थ इन तीनों को नहीं श्रद्धता है, क्योंकि प्र अर्थात् उत्कृष्ट है वचन जिसका, ऐसा प्रवचन अर्थात् आप्त । पुनश्च प्रकृष्ट जो परमात्मा, उसका वचन सो प्रवचन अर्थात् परमागम । पुनश्च प्रकृष्ट उच्यते अर्थात् प्रमाण द्वारा निरूपित किया जाय ऐसा प्रवचन अर्थात् पदार्थ, इसप्रकार निरुक्ति द्वारा प्रवचन शब्द से आप्त, आगम, पदार्थ तीनों का अर्थ होता है । पुनश्च वह मिथ्यादृष्टि असद्भाव अर्थात् मिथ्यारूप; प्रवचन अर्थात् आप्त, आगम, पदार्थ; उपदिष्टं अर्थात् आप्त समान आभासवाले जो कुदेव हैं उनके द्वारा उपदेशित अथवा अनुपदिष्ट अर्थात् बिना उपदेशित, उसका श्रद्धान करता है । पुनश्च वादी का अभिप्राय कहनेवाली उक्तं च गाथा कहते हैं -

घडपडथंभादिपयत्थेसु मिच्छाइट्ठी जहावगमं ।
सद्दहतो वि अण्णाणी उच्चदे जिणवयणे सद्दहणाभावादो ॥
इसका अर्थ –- घट, पट, स्तंभ आदि पदार्थों में मिथ्यादृष्टि जीव यथार्थ ज्ञान से श्रद्धान करता हुआ भी अज्ञानी कहा जाता है, क्योंकि जिनवचन में श्रद्धान का अभाव है । ऐसा सिद्धांत के वाक्य द्वारा कहा हुआ मिथ्यात्व का लक्षण जानकर वह मिथ्यात्व भाव त्यागने योग्य है । उसका भेद भी इसी वाक्य से जानना । वह कहते हैं - कोई मिथ्यादर्शनरूप परिणाम आत्मा में प्रकट होता हुआ वर्ण-रसादि की उपलब्धि जो ज्ञान द्वारा जानने की प्राप्ति उसके होते हुये कारण-विपर्यास, पुनश्च भेदाभेद-विपर्यास, पुनश्च स्वरूप-विपर्यास को उपजाता है ।

वहां कारण-विपर्यास पहले कहते हैं । रूप-रसादिकों का एक कारण है, सो अमूर्तिक है, नित्य है ऐसी कल्पना करता है । अन्य कोई पृथ्वी आदि जातिभेद सहित भिन्न भिन्न परमाणु हैं, वे पृथ्वी के चार गुणयुक्त, जल के गंध बिना तीन गुणयुक्त, अग्नि के रस-गंध बिना दो गुणयुक्त, पवन के एक स्पर्श गुणयुक्त परमाणु हैं, वे अपनी समान जाति के कार्य को निपजानेवाले हैं ऐसा वर्णन करता है । इसप्रकार कारण में विपरीतभाव जानना ।

पुनश्च भेदाभेद-विपर्यास कहते हैं - कार्य से कारण भिन्न ही है अथवा अभिन्न ही है - ऐसी कल्पना भेदाभेद में अन्यथापना जानना ।

पुनश्च स्वरूप-विपर्यास कहते हैं - रूपादिक गुण निर्विकल्प हैं, कोई कहता है- हैं ही नहीं । कोई कहता है - रूपादिक के जानने से उनके आकार से परिणत ज्ञान ही है नहीं, उनका अवलंबन बाह्य वस्तुरूप है । ऐसा विचार स्वरूप में मिथ्यारूप जानना । इसप्रकार कुमतिज्ञान के बल के आधार से कुश्रुतज्ञान के विकल्प होते हैं ।

इनका सर्व मूल कारण मिथ्यात्व कर्म का उदय ही है, ऐसा निश्चय करना ।