+ सासादन / सासन गुणस्थान (दूसरा) -
आदिमसम्मत्तद्धा, समयादो छावलि त्ति वा सेसे
अणअण्णदरुदयादो, णासियसम्मो त्ति सासणक्खो सो ॥19॥
आदिमसम्यक्त्वाद्धा, आसमयतः षडावलिरिति वा शेषे ।
अनान्यतरोदयात् नाशितसम्यक्त्व इति सासानाख्यः सः ॥१९॥
अन्वयार्थ : प्रथमोपशम सम्यक्त्व के अथवा वा शब्द से द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के अन्तर्मूहर्त मात्र काल में से जब जघन्य एक समय तथा उत्कृष्ट छह आवली प्रमाण काल शेष रहे उतने काल में अनंतानुबन्धी क्रोध, मान, माया, लोभ में से किसी के भी उदय में आने से सम्यक्त्व की विराधना होने पर दर्शन-गुण की जो अव्यक्त अतत्त्व-श्रद्धान-रूप परिणति होती है, उसको सासन या सासादन गुणस्थान कहते हैं ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

आगे सासादन गुणस्थान का स्वरूप दो सूत्रों द्वारा कहते हैं -

प्रथमोपशम सम्यक्त्व के काल में जघन्य एक समय, उत्कृष्ट छह आवली अवशेष रहनेपर, अनंतानुबंधी चार कषायों में से अन्यतम किसी एक का उदय होनेपर, नष्ट किया है सम्यक्त्व जिसने ऐसा होता है, उसे सासादन कहते हैं । पुनश्च वा शब्द से द्वितीयोपशम सम्यक्त्व के काल में भी सासादन गुणस्थान की प्राप्ति होती है - ऐसा (गुणधराचार्यकृत) कषायप्राभृत नामक यतिवृषभाचार्यकृत (चूर्णिसूत्र) जयधवल ग्रंथ का अभिप्राय है ।

जो मिथ्यात्व से चतुर्थादि गुणस्थानों में उपशमसम्यक्त्व होता है, वह प्रथमोपशम सम्यक्त्व है । पुनश्च उपशमश्रेणी चढ़ते समय क्षायोपशमिक सम्यक्त्व से जो उपशम सम्यक्त्व होता है, वह द्वितीयोपशम सम्यक्त्व जानना ।