+ मिश्र / सम्यग्मिथ्यात्व गुणस्थान (तीसरा) -
सम्मामिच्छुदयेण य, जत्तंतरसव्वघादिकज्जेण
ण य सम्मं मिच्छं पि य, सम्मिस्सो होदि परिणामो ॥21॥
सम्यग्मिथ्यात्वोदयेन च जात्यंतरसर्वघातिकार्येण ।
न च सम्यक्त्वं मिथ्यात्वमपि च सम्मिश्रो भवति परिणामः ॥२१॥
अन्वयार्थ : जिसका प्रतिपक्षी आत्मा के गणु को सवर्था घातने का कार्य दूसरी सवर्घाति प्रकृतियों से विलक्षण जाति का है उस जात्यन्तर सवर्घाति सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति के उदय से केवल सम्यक्त्व-रूप या मिथ्यात्व-रूप परिणाम न होकर जो मिश्र-रूप परिणाम होता है, उसको तीसरा मिश्र-गणुस्थान कहते हैं ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

आगे सम्यग्मिथ्यादृष्टि गुणस्थान का स्वरूप चार गाथाओं द्वारा कहते हैं -

जात्यंतर अर्थात् जुदी ही एक जाति के भेदवाली जो सर्वघाति कार्यरूप सम्यग्मिथ्यात्व नामक दर्शनमोह की प्रकृति, उसके उदय से मिथ्यात्व प्रकृति के उदयवत् केवल मिथ्यात्व परिणाम भी नहीं होते और सम्यक्त्व प्रकृति के उदयवत् केवल सम्यक्त्व परिणाम भी नहीं होते । उसकारण से उस सम्यग्मिथ्यात्व प्रकृति का कार्यभूत जुदी ही जातिरूप सम्यग्मिथ्यात्व परिणाम मिलाया हुआ मिश्रभाव होता है, ऐसा जानना ।