जीवतत्त्वप्रदीपिका :
इव अर्थात् जैसे, व्यामिश्रं अर्थात् मिलाया हुआ दहि और गुड़ सो पृथग्भावं कर्तुं अर्थात् जुदा-जुदा भाव करने को 'नैव शक्यं' अर्थात् समर्थपना नहीं है एवं अर्थात् इसप्रकार सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिला हुआ परिणाम, सो केवल सम्यक्त्वभाव से अथवा केवल मिथ्यात्वभाव से जुदा-जुदा भाव से स्थापने को समर्थपना नहीं है । इसकारण से सम्यग्मिथ्यादृष्टि ऐसा जानना योग्य है । समीचीन और वही मिथ्या, सो सम्यग्मिथ्या ऐसी है दृष्टि अर्थात् श्रद्धा जिसकी, वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि है । इस निरुक्ति द्वारा भी पूर्व में ग्रहण किया जो अतत्त्वश्रद्धान, उसके सर्वथा त्याग बिना, उसके सहित ही तत्त्वश्रद्धान होता है । क्योंकि वैसे ही संभवनेवाली प्रकृति के उदयरूप कारण का सद्भाव है । |