दहिगुडमिव वामिम्सं, पुहभावं णेव कारिदुं सक्कं
एवं मिस्सयभावो, सम्मामिच्छो त्ति णादव्वो ॥22॥
दधिगुडमिव व्यामिश्रं पृथग्भावं नैव कर्तुं शक्यम् ।
एवं मिश्रकभावःसम्यग्मिथ्यात्वमिति ज्ञातव्यम् ॥२२॥
अन्वयार्थ : जिस प्रकार दही और गुड़ को परस्पर इस तरह से मिलाने पर कि फिर उन दोनों को पृथक्-पृथक् नहीं कर सकें, उस द्रव्य के प्रत्येक परमाणु का रस मिश्र-रूप (खट्टा और मीठा मिला हुआ) होता है । उसी ही प्रकार मिश्र-परिणामों में भी एक ही काल में सम्यक्त्व और मिथ्यात्व-रूप परिणाम रहते हैं, ऐसा समझना चाहिए ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

इव अर्थात् जैसे, व्यामिश्रं अर्थात् मिलाया हुआ दहि और गुड़ सो पृथग्भावं कर्तुं अर्थात् जुदा-जुदा भाव करने को 'नैव शक्यं' अर्थात् समर्थपना नहीं है एवं अर्थात् इसप्रकार सम्यग्मिथ्यात्वरूप मिला हुआ परिणाम, सो केवल सम्यक्त्वभाव से अथवा केवल मिथ्यात्वभाव से जुदा-जुदा भाव से स्थापने को समर्थपना नहीं है । इसकारण से सम्यग्मिथ्यादृष्टि ऐसा जानना योग्य है । समीचीन और वही मिथ्या, सो सम्यग्मिथ्या ऐसी है दृष्टि अर्थात् श्रद्धा जिसकी, वह सम्यग्मिथ्यादृष्टि है । इस निरुक्ति द्वारा भी पूर्व में ग्रहण किया जो अतत्त्वश्रद्धान, उसके सर्वथा त्याग बिना, उसके सहित ही तत्त्वश्रद्धान होता है । क्योंकि वैसे ही संभवनेवाली प्रकृति के उदयरूप कारण का सद्भाव है ।