+ अविरत सम्यक्त्व (चौथा) -
सम्मत्तदेसघादिस्सुदयादो वेदगं हवे सम्मं
चलमलिनमगाढं तं, णिच्चं कम्मक्खवणहेदु ॥25॥
सम्यक्त्वदेशघातेरुदयाद्वेदकं भवेत्सम्यक्त्वम् ।
चलं मलिनमगाढं तन्नित्यं कर्मक्षपणहेतु ॥२५॥
अन्वयार्थ : सम्यग्दर्शन-गुण को विपरीत करने वाली प्रकृतियों में से देशघाति सम्यक्त्व प्रकृति के उदय होने पर (तथा अनंतानुबंधी-चतुष्क और मिथ्यात्व मिश्र इन सर्वघाति प्रकृतियों के आगामी निषेकों का सदवस्था-रूप उपशम और वर्तमान निषेकों की बिना फल दिये ही निर्जरा होने पर) जो आत्मा के परिणाम होते हैं उनको वेदक या क्षायोपशिमिक सम्यग्दर्शन कहते हैं । वे परिणाम चल, मलिन या अगाढ़ होते हुए भी नित्य ही अर्थात् जघन्य अन्तमुर्हूर्त से लेकर उत्कृष्ट छ्यासठ सागर पर्यन्त कर्मों की निर्जरा के कारण हैं ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

अनंतानुबंधी कषाय का प्रशस्त उपशम नहीं है इस हेतु से उन अनंतानुबंधी कषायों का अप्रशस्त उपशम होनेपर अथवा विसंयोजन होनेपर तथा दर्शनमोह के भेदरूप मिथ्यात्वकर्म और सम्यग्मिथ्यात्वकर्म, इन दोनों का प्रशस्त उपशम होने पर अथवा अप्रशस्त उपशम होनेपर अथवा क्षय होने के सन्मुख होनेपर तथा सम्यक्त्व प्रकृतिरूप देशघाति स्पर्धकों का उदय होनेपर ही जो तत्त्वार्थश्रद्धान है लक्षण जिसका, ऐसा सम्यक्त्व होता है, सो वेदक नाम धारक है । जहां विवक्षित प्रकृति उदय आने योग्य न हो और स्थिति, अनुभाग घटने वा बढ़ने वा संक्रमण होने योग्य हो, वहां अप्रशस्त उपशम जानना । पुनश्च जहां उदय आने योग्य न हो और स्थिति, अनुभाग घटने, बढ़ने वा संक्रमण होने योग्य भी न हो वहां प्रशस्त उपशम जानना ।

पुनश्च उस सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होने से देशघाति स्पर्धकों के तत्त्वार्थश्रद्धान नष्ट करने का सामर्थ्य का अभाव है; इसलिये वह सम्यक्त्व चल, मलिन, अगाढ़ होता है । क्योंकि सम्यक्त्व प्रकृति के उदय का तत्त्वार्थश्रद्धान को मल उपजाने मात्र में ही व्यापार है । उसकारण से उस सम्यक्त्व प्रकृति के देशघातिपना है । इसतरह सम्यक्त्व प्रकृति के उदय को अनुभवते हुये जीव के उत्पन्न हुआ जो तत्त्वार्थश्रद्धान, वह वेदक सम्यक्त्व है, ऐसा कहते हैं । यही वेदक सम्यक्त्व क्षायोपशमिक सम्यक्त्व ऐसा नामधारक है, क्योंकि दर्शनमोह के सर्वघाति स्पर्धकों के उदय का अभावरूप है लक्षण जिसका, ऐसा क्षय होनेपर, तथा देशघातिस्पर्धकरूप सम्यक्त्व प्रकृति का उदय होनेपर, तथा उसीके वर्तान समय संबंधी निषेक के ऊपर के निषेक उदय को प्राप्त न होते हुये उन संबंधी स्पर्धकों का सत्ता अवस्थारूप है लक्षण जिसका, ऐसा उपशम होनेपर वेदक सम्यक्त्व होता है । इसलिये इसीका दूसरा नाम क्षायोपशमिक सम्यक्त्व है, वह कोई भिन्न नहीं है ।

सो वेदक सम्यक्त्व कैसा है ? नित्यं अर्थात् नित्य है । इस विशेषण द्वारा इसकी जघन्य स्थिति अंतर्मुहूर्त है तथापि उत्कृष्टपने से छ्यासठ सागरप्रमाण काल तक रहता है । इसकारण उत्कृष्ट स्थिति की अपेक्षा दीर्घ काल तक रहता है, इसलिये नित्य कहा है । परंतु सर्वकाल अविनेशर की अपेक्षा यहां नित्य न समझना । पुनश्च कैसा है ? कर्मक्षपणहेतु अर्थात् कर्म क्षपावने का कारण है । इस विशेषण द्वारा मोक्ष के कारण सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र परिणाम हैं, उनमें सम्यक्त्व ही मुख्य कारण है, ऐसा सूचित करते हैं । पुनश्च वेदक सम्यक्त्व में शंकादिक मल हैं, वे भी यथासंभव सम्यक्त्व का मूल से नाश करने का जो कारण नहीं है ऐसे सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से उत्पन्न हुये हैं ।

पुनश्च औपशमिक और क्षायिक सम्यक्त्व में मल उपजाने का कारण ऐसे उस सम्यक्त्व प्रकृति के उदय के अभाव से निर्मलपना सिद्ध है, ऐसा हे शिष्य ! तू जान!

पुनश्च चलादिकों का लक्षण कहते हैं, वहां चलपना कहते हैं --

नानात्मीयविशेषेषु चलतीति चलं स्मृतं ।
लसत्कल्लोलमालासु जलमेकमवस्थितं ॥
स्वकारितेऽर्हच्चैत्यादाै देवोऽयं मेऽन्यकारिते ।
अन्यस्यायमिति भ्राम्यन् मोहाच्छाद्धोऽपि चेष्टते ॥
नाना प्रकार अपने ही विशेष अर्थात् आप्त, आगम, पदार्थरूप श्रद्धान के भेद, उनमें जो चलायमान हो-चंचल हो, उसे चल कहा है । वही कहते हैं - अपने किये हुये अर्हन्त-प्रतिबिंबादिक में यह मेरा देव है, ऐसे ममत्व से, तथा अन्य द्वारा किये हुये अर्हन्तप्रतिबिंबादिक में यह अन्य का है, इसतरह पर का मानकर भेदरूप भजता है, इसलिये चल कहा है ।

यहां दृष्टांत कहते हैं - जैसे अनेक प्रकार के कल्लोल तरंगों की पंक्ति में जल एक ही अवस्थित है तथापि नानारूप होकर चल है; वैसे मोह जो सम्यक्त्व प्रकृति का उदय, उससे श्रद्धान है, वह भ्रणरूप चेष्टा करता है ।

भावार्थ – जैसे जल तरंगों में चंचल होता है, परंतु अन्य भाव को नहीं भजता, वैसे वेदक सम्यग्दृष्टि स्वयं ने या अन्य ने किये हुये जिनबिंबादि में यह मेरा, यह अन्य का इत्यादि विकल्प करता है, परंतु अन्य देवादिक को नहीं भजता ।

अब मलिनपना कहते हैं -

तदप्यलब्धमाहात्म्यं पाकात्सम्यक्त्वकर्मणः ।
मलिनं मलसंगेन शुद्धं स्वर्णमिवोद्भवेत् ॥
सो भी वेदक सम्यक्त्व है, वह सम्यक्त्व प्रकृति के उदय से नहीं पाया है माहात्म्य जिसने, ऐसा होता है । पुनश्च वह शंकादिक मल के संग से मलिन होता है । जैसे शुद्ध सोना बाह्य मल के संयोग से मलिन होता है, वैसे वेदक सम्यक्त्व शंकादिक मल के संयोग से मलिन होता है ।

अब अगाढ़ कहते हैं -

स्थान एव स्थितं कंप्रमगाढमिति कीर्त्यते ।
वृद्धयष्टिरिवात्यक्तस्थाना करतले स्थिता ॥
समेप्यनंतशक्तित्वे सर्वेषामर्हतामयं ।
देवोऽस्मै प्रभुरेषोस्मा इत्यास्था सुदृशामपि ॥
स्थान अर्थात् आप्त, आगम, पदार्थों की श्रद्धानरूप अवस्था, उसमें स्थित होकर ही कांपता है, गाढ़ा नहीं रहे, उसे अगाढ़ कहते हैं । उसका उदाहरण कहते हैं - ऐसे तीव्र रुचि रहित होकर सर्व अर्हन्त परमेष्ठियों का अनंतशक्तिपना समान होते हुये भी, इस शांतिकर्म जो शांति क्रिया उसके लिये शांतिनाथ देव है, वह प्रभु अर्थात् समर्थ है । पुनश्च इस विघ्ननाशन आदि क्रिया के लिये पार्श्वनाथ

देव समर्थ है ।

इत्यादि प्रकार से रुचि, जो प्रतीति, उसकी शिथिलता रहती है । इसलिये बूढ़े के हाथ में लाठी शिथिल संबंधपने से अगाढ़ है, वैसे सम्यक्त्व अगाढ़ है ।

भावार्थ –- जैसे बूढ़े के हाथ से लाठी छूटती नहीं, परंतु शिथिल रहती है । वैसे वेदक सम्यक्त्व का श्रद्धान छूटता नहीं । शांति आदि के लिये अन्य देवादिकों को नहीं सेवता, तथापि शिथिल रहता है । जैन देवादिकों में कल्पना उपजाता है । इसतरह यहां चल, मलिन, अगाढ़ का वर्णन उपदेशरूप उदाहरण मात्र कहा है । सर्व तारतम्य भाव ज्ञानगम्य है ।