+ अविरत सम्यक्त्व (चौथा) -
सत्तण्हं उवसमदो, उवसमसम्मो खया दु खइयो य
विदियकसायुदयादो, असंजदो होदि सम्मो य ॥26॥
सप्तानामुपशमतः उपशमसम्यक्त्वं क्षयात्तु क्षायिकं च ।
द्वितीयकषायोदयादसंयतं भवति सम्यक्त्वं च ॥२६॥
अन्वयार्थ : दर्शन-मोहनीय की तीन अर्थात् मिथ्यात्व, मिश्र और सम्यक्त्व-प्रकृति तथा चार अनंतानुबंधी कषाय - इन सात प्रकृतियों के उपशम से औपशमिक और सर्वथा क्षय से क्षायिक सम्यग्दर्शन होता है । इस चतुर्थ-गुणस्थानवर्ती सम्यग्दर्शन के साथ संयम बिलकुल नहीं होता क्योंकि यहाँ पर दूसरी अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहा करता है । इसी से इस गुणस्थानवर्ती जीव को असंयत सम्यग्दृष्टि कहते हैं ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

आगे औपशमिक, क्षायिक सम्यक्त्वों के उपजने के कारण और स्वरूप का प्रतिपादन करते हैं -

नहीं पाया जाता अंत जिसका, ऐसा अनंत अर्थात् मिथ्यात्व, उसे अनुबध्नंति अर्थात् उसका आश्रय करके प्रवर्तते हैं ऐसे अनंतानुबंधी क्रोध, मान, माया, लोभ; तथा मिथ्यात्व, सम्यग्मिथ्यात्व, सम्यक्त्व प्रकृति नामधारक दर्शनमोह की तीन प्रकृति; इसतरह सात प्रकृतियों का सर्व उपशम होने से औपशमिक सम्यक्त्व होता है । पुनश्च उसीतरह उन सात प्रकृतियों के क्षय से क्षायिक सम्यक्त्व होता है । तथा दोनों ही सम्यक्त्व निर्मल हैं, क्योंकि शंकादिक मलों के अंश की भी उत्पत्ति नहीं होती है । पुनश्च वैसे दोनों सम्यक्त्व निश्चल हैं, क्योंकि आप्त, आगम, पदार्थ गोचर श्रद्धान भेदों में कहीं भी स्खलित नहीं होता । पुनश्च उसीप्रकार ही दोनों सम्यक्त्व गाढ़ हैं, क्योंकि आप्तादिक में तीव्र रुचि होती है । यह मल का नहीं होना, स्खलित नहीं होना, तीव्ररुचि का होना - ये तीनों इसलिये पाये जाते हैं क्योंकि यहां सम्यक्त्व प्रकृति के उदय का अत्यंत अभाव है, ऐसा जानना । पुनश्च इसप्रकार कहे हुये तीन प्रकार के सम्यक्त्वों से परिणमित हुआ जो सम्यग्दृष्टि जीव, वह द्वितीय कषाय जो अप्रत्याख्यान क्रोध, मान, माया, लोभ; इनमें से एक किसी के उदय से असंयत अर्थात् असंयमी होता है, इसीलिये इसका नाम असंयत सम्यग्दृष्टि है ।