जीवतत्त्वप्रदीपिका :
आगे तत्त्वार्थश्रद्धान का सम्यक् प्रकार ग्रहण और त्याग का अवसर नहीं है उसे ही दो गाथाओं द्वारा प्ररूपित करते हैं - जो जीव अर्हन्तादिकों द्वारा उपदेशित ऐसा जो प्रवचन अर्थात् आप्त, आगम, पदार्थ ये तीन, उन्हें श्रद्दधाति अर्थात् श्रद्धता है, उनमें रुचि करता है । पुनश्च उन आप्तादिकों में असद्भावं अर्थात् अतत्त्व, अन्यथारूप, उसको भी अपने विशेष ज्ञान के अभाव से केवल गुरु ही के नियोग से जो इस गुरु ने कहा, सो ही अर्हन्त की आज्ञा है, इसप्रकार प्रतीति से श्रद्धान करता है, वह भी सम्यग्दृष्टि ही है, क्योंकि उसकी आज्ञा का उल्लंघन नहीं करता है । भावार्थ –- जो स्वयं को विशेष ज्ञान न होते हुये तथा मंदमति जैनगुरु से आप्तादिक का स्वरूप अन्यथा कहनेपर और यह अर्हन्त की ऐसी ही आज्ञा है, इसतरह मानकर जो असत्य श्रद्धान करे तो भी सम्यग्दृष्टि का अभाव नहीं होता, क्योंकि इसने तो अर्हन्त की आज्ञा जानकर प्रतीति की है । |