
सुत्तादो तं सम्मं, दरसिज्जंतं जदा ण सद्दहदि
सो चेव हवइ मिच्छाइट्ठी जीवो तदो पहुदी ॥28॥
सूत्रात्तं सम्यग्दर्शयंतं यदा न श्रद्दधाति ।
स चैव भवति मिथ्यादृष्टिर्जीवः तदा प्रभृति ॥२८॥
अन्वयार्थ : उस प्रकार असत्य अर्थ का श्रद्धान करनेवाला आज्ञा सम्यग्दृष्टि जीव, जिस काल प्रवीण अन्य आचार्यों द्वारा, पूर्व में ग्रहण किया हुआ असत्यार्थरूप श्रद्धान से विपरीत भाव सत्यार्थ, सो गणधरादिकों के सूत्र दिखाकर सम्यक् प्रकार से निरूपण किया जाए, उसका खोटे हठ से श्रद्धान न करे तो, उस काल से लेकर, वह जीव मिथ्यादृष्टि होता है । क्योंकि सूत्र के अश्रद्धान से जिन आज्ञा के उल्लंघन का सुप्रसिद्धपना है, उसकारण से मिथ्यादृष्टि होता है ।
जीवतत्त्वप्रदीपिका
जीवतत्त्वप्रदीपिका :
उसप्रकार असत्य अर्थ का श्रद्धान करनेवाला आज्ञा सम्यग्दृष्टि जीव, जिस काल प्रवीण अन्य आचार्यों द्वारा, पूर्व में ग्रहण किया हुआ असत्यार्थरूप श्रद्धान से विपरीत भाव सत्यार्थ, सो गणधरादिकों के सूत्र दिखाकर सम्यक् प्रकार से निरूपण किया हुआ होगा, उसका खोटे हठ से श्रद्धान न करे तो, उस काल से लेकर, वह जीव मिथ्यादृष्टि होता है । क्योंकि सूत्र के अश्रद्धान से जिन आज्ञा के उल्लंघन का सुप्रसिद्धपना है, उसकारण से मिथ्यादृष्टि होता है ।
|