+ देशविरत (पाँचवां) -
णो इंदियेसु विरदो, णो जीवे थावरे तसे वापि
जो सद्दहदि जिणुत्तं सम्माइट्ठी अविरदो सो ॥29॥
नो इंद्रियेषु विरतो नो जीवे स्थावरे त्रसे वापि ।
यः श्रद्दधाति जिनोक्तं सम्यग्दृष्टिरविरतः सः ॥२९॥
अन्वयार्थ : जो इन्द्रियों के विषयों से तथा त्रस स्थावर जीवों की हिंसा से विरत नहीं है, किन्तु जिनेन्द्र-देव द्वारा कथित प्रवचन का श्रद्धान करता है वह अविरत-सम्यग्दृष्टि है ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

आगे असंयतपना और सम्यग्दृष्टिपना के सामानाधिकरण्य को दिखाते हैं -

जो जीव इन्द्रियविषयों में नोविरत - विरति रहित है तथा वैसे ही स्थावर, त्रस जीव की हिंसा में भी विरत नहीं है - त्याग रहित है, तथा जिनेन्द्र द्वारा उपदेशित प्रवचन का श्रद्धान करता है, वह जीव अविरतसम्यग्दृष्टि है । जिससे असंयत, वही सम्यग्दृष्टि, वह असंयत-सम्यग्दृष्टि है । इसतरह समानाधिकरणपना दृढ़ किया । अनेक विशेषणों का एक वस्तु आधार हो, वहां कर्मधारेय समास में समानाधिकरणपना जानना । पुनश्च अपि शब्द से उसके संवेगादिक सम्यक्त्व के गुण भी इसके पाये जाते हैं, ऐसा सूचित है । पुनश्च यहां जो अविरत विशेषण है, वह अंत्यदीपक समान जानना । जैसे अंत की ओर रखा हुआ दीपक, पिछले सर्व पदार्थों को प्रकाशित करता है, वैसे यहां अविरत विशेषण मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में अविरतपना को प्रकाशित करता है, ऐसा संबंध जानना । पुनश्च अपि शब्द से अनुकंपा भी है ।

भावार्थ –- कोई समझेगा कि विषयों में अविरति है, इसलिये विषयानुरागी बहुत होगा, वैसा नहीं है, संवेगादि गुण-संयुक्त है । पुनश्च हिंसादि में अविरति है, इसलिये निर्दय होगा, वैसा नहीं है, दयाभाव संयुक्त है, ऐसा अविरत सम्यग्दृष्टि है ।