जीवतत्त्वप्रदीपिका :
आगे असंयतपना और सम्यग्दृष्टिपना के सामानाधिकरण्य को दिखाते हैं - जो जीव इन्द्रियविषयों में नोविरत - विरति रहित है तथा वैसे ही स्थावर, त्रस जीव की हिंसा में भी विरत नहीं है - त्याग रहित है, तथा जिनेन्द्र द्वारा उपदेशित प्रवचन का श्रद्धान करता है, वह जीव अविरतसम्यग्दृष्टि है । जिससे असंयत, वही सम्यग्दृष्टि, वह असंयत-सम्यग्दृष्टि है । इसतरह समानाधिकरणपना दृढ़ किया । अनेक विशेषणों का एक वस्तु आधार हो, वहां कर्मधारेय समास में समानाधिकरणपना जानना । पुनश्च अपि शब्द से उसके संवेगादिक सम्यक्त्व के गुण भी इसके पाये जाते हैं, ऐसा सूचित है । पुनश्च यहां जो अविरत विशेषण है, वह अंत्यदीपक समान जानना । जैसे अंत की ओर रखा हुआ दीपक, पिछले सर्व पदार्थों को प्रकाशित करता है, वैसे यहां अविरत विशेषण मिथ्यादृष्टि आदि गुणस्थानों में अविरतपना को प्रकाशित करता है, ऐसा संबंध जानना । पुनश्च अपि शब्द से अनुकंपा भी है । भावार्थ –- कोई समझेगा कि विषयों में अविरति है, इसलिये विषयानुरागी बहुत होगा, वैसा नहीं है, संवेगादि गुण-संयुक्त है । पुनश्च हिंसादि में अविरति है, इसलिये निर्दय होगा, वैसा नहीं है, दयाभाव संयुक्त है, ऐसा अविरत सम्यग्दृष्टि है । |