
पच्च्नखाणुदयादो, संजमभावो ण होदि णवरिं तु
थोववदो होदि तदो, देसवदो होदि पंचमओ ॥30॥
प्रत्याख्यानोदयात् संयमभावो न भवति नवरिं तु ।
स्तोकव्रतं भवति ततो देशव्रतो भवति पंचमः ॥३०॥
अन्वयार्थ : यहाँ पर प्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय रहने से पूर्ण संयम तो नहीं होता, किन्तु यहाँ इतनी विशेषता होती है कि अप्रत्याख्यानावरण कषाय का उदय न रहने से एकदेश व्रत होते हैं । अतएव इस गुणस्थान का नाम देशव्रत या देशसंयम है । इसी को पाँचवाँ गुणस्थान कहते हैं ।
जीवतत्त्वप्रदीपिका
जीवतत्त्वप्रदीपिका :
आगे देशसंयत गुणस्थान का दो गाथाओं द्वारा निर्देश करते हैं -
अनंतानुबंधी, अप्रत्याख्यानावरण रूप आठ कषायों के उपशम से प्रत्याख्यानावरण कषायों के देशघाति स्पर्धकों का उदय होते हुये, सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभावरूप लक्षण है जिसका ऐसे क्षय से जिसके सकलसंयमरूप भाव नहीं होते परंतु विशेष यह है कि देशसंयम अर्थात् किंचित् विरति होती है, उसको धारण करता हुआ देशसंयत नामक पंचम गुणस्थानवर्ती जीव जानना ।
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