जीवतत्त्वप्रदीपिका :
वह देशसंयत ही विरताविरत भी कहलाता है । एक काल ही में जो जीव त्रसहिंसा से विरत है और स्थावरहिंसा से अविरत है, वह जीव विरत और वही अविरत इसतरह विरत-अविरत में विरोध है; तथापि अपने-अपने गोचर भाव त्रस-स्थावर के भेद की अपेक्षा से कोई विरोध नहीं है । इसीलिये विरत-अविरत ऐसा उपदेश योग्य है । पुनश्च वैसे चकार शब्द से प्रयोजन के बिना स्थावरहिंसा को भी नहीं करता है, ऐसा व्याख्यान करना योग्य है । सो कैसा है ? जिनैकमतिः अर्थात् जिन जो आप्तादिक उन्हीं में है एकमात्र मति अर्थात् इच्छा-रुचि जिसकी, ऐसा है । इससे देशसंयत के सम्यग्दृष्टिपना है, ऐसा विशेषण निरूपण किया है । यह विशेषण आदि दीपक के समान है, सो आदि में रखा हुआ दीपक जैसे आगे के सर्व पदार्थों को प्रकाशित करता है, वैसे यहां से आगे भी सर्व गुणस्थानों में इस विशेषण द्वारा संबंध करना योग्य है-सर्व सम्यग्दृष्टि जानने । |