+ प्रमत्तविरत (छठा) -
संजलणणोकसायाणुदयादो संजमो हवे जम्हा
मलजणणपमादो वि य, तम्हा हु पमत्तविरदो सो ॥32॥
संज्वलननोकषायाणामुदयात्संयमो भवेद्यस्मात् ।
मलजननप्रमादोऽपि च तस्मात्खलु प्रमत्तविरतः सः ॥३२॥
अन्वयार्थ : सकल संयम को रोकनेवाली प्रत्याख्यानावरण कषाय का क्षयोपशम होने से पूर्ण संयम तो हो चुका है, किन्तु उस संयम के साथ-साथ संज्वलन और नोकषाय का उदय रहने से संयम में मल को उत्पन्न करने वाला प्रमाद भी होता है । अतएव इस गुणस्थान को प्रमत्त-विरत कहते हैं ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

आगे प्रमत्त गुणस्थान को दो गाथाओं द्वारा कहते हैं -

जिस कारण से संज्वलन कषाय के सर्वघाति स्पर्धकों का उदयाभाव लक्षण धारी क्षय होनेपर, तथा बारह कषाय जो उदय को प्राप्त नहीं है उनका और संज्वलन कषाय और नोकषाय इनके निषेकों की सत्ता अवस्थारूप लक्षण धारी उपशम होनेपर, तथा संज्वलन कषाय, नोकषायों के देशघाति स्पर्धकों के तीव्र उदय से सकलसंयम और मल को उपजानेवाला प्रमाद दोनों होते हैं । उसकारण से प्रमत्त वही विरत, सो षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीव प्रमत्तसंयत कहलाता है ।

'विवक्खिदस्स संजमस्स खओवसमियत्तपडुप्पायणमेत्तफलत्तादो कथं संजलणणोकसायाणं चरित्तविरोहीणं चारित्तकारयत्तं ? देशघादित्तेण सपडिवक्खगुणं विणिम्मूलणसत्तिविरहियाणमुदयो विज्जमाणो वि ण स कज्जकार ओत्ति संजमहेदुत्तेण विविक्खियत्तादो, वत्थुदो दु कज्जं पडुप्पायेदि मलजणणपमादोविय अविय इत्यवधारणे मलजणणपमादो चेव जम्हा एवं तम्हा हु पमत्ताविरदो सो तमुवलक्खदि ।'

विवक्षित जो संयम, उसके क्षायोपशमिकपने के उत्पादनमात्र फलपना है । संज्वलन और नोकषाय जो चारित्र के विरोधी, उनके चारित्र का करना-उपजाना कैसे संभव है ?

वहां कहते हैं - एकदेशघाति है, उस भाव से अपना प्रतिपक्षी संयमगुण, उसका निर्मूल नाश करने की शक्ति रहित है । सो इनका उदय विद्यमान भी है तथापि अपना कार्य करनेवाला नहीं है, संयम का नाश नहीं कर सकता । इसतरह संयम के कारणपने

से, विवक्षा से संज्वलन और नोकषायों के चारित्र उपजाना उपचार से जानना । वस्तु से यथार्थ निश्चय विचार करनेपर ये संज्वलन और नोकषाय अपने कार्य ही को उपजाते हैं । इन्हीं से मल को उपजानेवाला प्रमाद होता है । अपि च शब्द है सो प्रमाद

भी है ऐसा अवधारण अर्थ में जानना । जिसकारण मल का उपजानेवाला प्रमाद है उसकारण ऐसा प्रकट प्रमत्तविरत, वह षष्ठ गुणस्थानवर्ती जीव है ।