+ प्रमत्तविरत (छठा) -
वत्तावत्तपमादे, जो वसइ पमत्तसंजदो होदि
सयलगुणसीलकलिओ, महव्वई चित्तलायरणो ॥33॥
व्यक्ताव्यक्तप्रमादे यो वसति प्रमत्तसंयतो भवति ।
सकलगुणशीलकलितो महाव्रती चित्रलाचरणः ॥३३॥
अन्वयार्थ : जो महाव्रती सम्पूर्ण (२८) मूल-गुण और शील के भेदों से युक्त होता हुआ भी व्यक्त एवं अव्यक्त दोनों प्रकार के प्रमादों को करता है वह प्रमत्तसंयत गुणस्थानवाला है । अतएव वह चित्रल आचरणवाला माना गया है ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

उसे लक्षण द्वारा कहते हैं -

व्यक्त अर्थात् अपने जानने में आवे, पुनश्च अव्यक्त अर्थात् प्रत्यक्ष ज्ञानियों के ही जानने योग्य ऐसा जो प्रमाद उनमें जो संयत प्रवर्तता है, सो चारित्रमोहनीय के क्षयोपशम के माहात्म्य से समस्त गुण और शील से संयुक्त महाव्रती होता है । अपि शब्द से प्रमादी भी होता है और महाव्रती भी होता है । यहां सकलसंयमपना महाव्रतीपना देशसंयत की अपेक्षा जानना, ऊपर के गुणस्थानों की अपेक्षा नहीं । उसकारण से ही प्रमत्तसंयत चित्रलाचरण है, ऐसा कहा है । चित्रं अर्थात् प्रमाद से मिश्ररूप को लाति अर्थात् करे उसे चित्रल कहते हैं । चित्रल आचरण है जिसका, वह चित्रलाचरण जानना । अथवा चित्रल अर्थात् सारंग, चीता, उसके समान मिला हुआ काबरा आचरण जिसका हो, वह चित्रलाचरण जानना । अथवा चित्रं लाति अर्थात् मन को प्रमादरूप से करे, वह चित्तल कहलाता है । चित्तल आचरण जिसका, वह चित्तलाचरण जानना । इसतरह विशेष निरुक्ति भी पाठांतर की अपेक्षा जाननी ।