+ १५ प्रमाद -
विकहा तहा कसाया, इंदिय णिद्दा तहेव पणयो य
चदु चदु पणमेगेगं, होंति पमादा हु पण्णरस ॥34॥
विकथा तथा कषाया इंद्रियनिद्राः तथैव प्रणयश्च ।
चतुश्चतुः पञ्चैकैकं भवंति प्रमादाः खलु पंचदश ॥३४॥
अन्वयार्थ : चार विकथा - स्त्री-कथा, भक्त-कथा, राष्ट्र-कथा, अवनिपाल-कथा, चार कषाय - क्रोध, मान, माया, लोभ, पंच इन्द्रिय - स्पर्शन, रसना, घ्राण, चक्षु, श्रोत्र, एक निद्रा और एक प्रणय-स्नेह इस तरह कुल मिलाकर प्रमादों के पन्द्रह भेद हैं ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

आगे उन प्रमादों के नाम, संख्या दिखाने के लिये सूत्र कहते हैं -

संयमविरुद्ध कथा, उसे विकथा कहते हैं । तथा कषंति अर्थात् संयमगुण का घात करता है, उसे कषाय कहते हैं । तथा संयमविरोधी इंद्रियों का विषयप्रवृत्तिरूप व्यापार, उसे इन्द्रिय कहते हैं । तथा स्त्यानगृद्धि आदि तीन प्रकृतियों के उदय से वा निद्रा, प्रचला के तीव्र उदय से प्रकट हुयी जो जीव के अपने दृश्य पदार्थों के सामान्यमात्र ग्रहण को रोकनेवाली जड़रूप अवस्था, वह निद्रा है । तथा बाह्य पदार्थों में ममत्वरूप भाव, वह प्रणय अर्थात् स्नेह है । इस क्रम से विकथा चार, कषाय चार, इन्द्रिय पांच, निद्रा एक, स्नेह एक इसतरह सर्व मिलाकर प्रमाद पंद्रह होते हैं । यहां सूत्र में पहले चकार कहा, वह ये सर्व ही प्रमाद हैं, ऐसा साधारण भाव जानने के लिये कहा है । पुनश्च दूसरा तथा शब्द कहा, वह परस्पर समुदाय करने के लिये कहा है ।