+ स्वस्थान अप्रमत्त विरत की विशषेता -
णट्ठासेसपमादो, वयगुणसीलोलिमंडिओ णाणी
अणुवसमओ अखवओ झाणणिलीणो हु अपमत्तो ॥46॥
नष्टाशेषप्रमादो व्रतगुणशीलावलिमंडितो ज्ञानी ।
अनुपशमकः अक्षपकः ध्याननिलीनो हि अप्रमत्तः ॥४६॥
अन्वयार्थ : जिस संयत के सम्पूर्ण व्यक्ताव्यक्त प्रमाद नष्ट हो चुके हैं, और जो समग्र ही महाव्रत, अट्ठाईस मूलगुण तथा शील से युक्त है, शरीर और आत्मा के भेद-ज्ञान में तथा मोक्ष के कारण-भूत ध्यान में निरन्तर लीन रहता है, ऐसा अप्रमत्त मुनि जब तक उपशमक या क्षपक श्रेणी का आरोहण नहीं करता तब तक उसको स्वस्थान अप्रमत्त अथवा निरतिशय अप्रमत्त कहते हैं ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 

जीवतत्त्वप्रदीपिका :

वहां स्वस्थान अप्रमत्त संयत के स्वरूप को निरूपित करते हैं -

जो जीव नष्ट हुये हैं समस्त प्रमाद जिसके ऐसा हो, पुनश्च व्रत, गुण, शील इनकी आवलि-पंक्ति, उनसे मंडित हो-आभूषित हो, पुनश्च सम्यग्ज्ञान उपयोग से संयुक्त हो, पुनश्च धर्मध्यान में लीन है मन जिसका ऐसा हो, ऐसा अप्रमत्त संयमी जब तक उपशम श्रेणी वा क्षपक श्रेणी के सन्मुख चढ़ने को नहीं प्रवर्तता, तब तक वह जीव प्रकट स्वस्थान अप्रमत्त है - ऐसा कहते हैं । यहां ज्ञानी विशेषण कहा

है सो जिसतरह सम्यग्दर्शन-सम्यक्चारित्र मोक्ष के कारण हैं, उसतरह सम्यग्ज्ञान के भी मोक्ष के कारणपने को सूचित करता है । भावार्थ – कोई समझेगा कि चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्व का वर्णन किया, पश्चात् चारित्र का कहा, सो ये दो ही मोक्षमार्ग है; इसलिये ज्ञानी विशेषण कहकर सम्यग्ज्ञान भी इन्हीं के साथ ही मोक्ष का कारण है, ऐसा अभिप्राय दिखाया है ।