जीवतत्त्वप्रदीपिका :
वहां स्वस्थान अप्रमत्त संयत के स्वरूप को निरूपित करते हैं - जो जीव नष्ट हुये हैं समस्त प्रमाद जिसके ऐसा हो, पुनश्च व्रत, गुण, शील इनकी आवलि-पंक्ति, उनसे मंडित हो-आभूषित हो, पुनश्च सम्यग्ज्ञान उपयोग से संयुक्त हो, पुनश्च धर्मध्यान में लीन है मन जिसका ऐसा हो, ऐसा अप्रमत्त संयमी जब तक उपशम श्रेणी वा क्षपक श्रेणी के सन्मुख चढ़ने को नहीं प्रवर्तता, तब तक वह जीव प्रकट स्वस्थान अप्रमत्त है - ऐसा कहते हैं । यहां ज्ञानी विशेषण कहा है सो जिसतरह सम्यग्दर्शन-सम्यक्चारित्र मोक्ष के कारण हैं, उसतरह सम्यग्ज्ञान के भी मोक्ष के कारणपने को सूचित करता है । भावार्थ – कोई समझेगा कि चतुर्थ गुणस्थान में सम्यक्त्व का वर्णन किया, पश्चात् चारित्र का कहा, सो ये दो ही मोक्षमार्ग है; इसलिये ज्ञानी विशेषण कहकर सम्यग्ज्ञान भी इन्हीं के साथ ही मोक्ष का कारण है, ऐसा अभिप्राय दिखाया है । |