जीवतत्त्वप्रदीपिका :
आगे सातिशय अप्रमत्त के स्वरूप को कहते हैं -ह्न यहां विशेष कथन है, वह कैसे है ? वह कहते हैं - जो जीव समय-समय प्रति अनंतगुणी विशुद्धता द्वारा वर्धान है, मंदकषाय होने का नाम विशुद्धता है, सो प्रथम समय की विशुद्धता से दूसरे समय की विशुद्धता अनंतगुणी, उससे तीसरे समय की अनंतगुणी, इसतरह जिसकी विशुद्धता समय-समय बढ़ती है, ऐसा जो वेदक सम्यग्दृष्टि अप्रमत्त संयत गुणस्थानवर्ती जीव, वह प्रथम ही अनंतानुबंधी चतुष्क का अधःकरणादि तीन करणरूप पहले करके विसंयोजन करता है । विसंयोजन अर्थात् क्या करता है ? अन्य प्रकृतिरूप परिणमानेरूप जो संक्रमण, उस विधान से इस अनंतानुबंधी चतुष्क के जो कर्म परमाणु, उनको बारह कषाय और नौ नोकषायरूप परिणमाता है । पुनश्च उसके अनंतर अंतर्मुहूर्त काल तक विश्राम द्वारा जैसा का वैसा रहकर, तीन करण पहले करके, दर्शनमोह की तीन प्रकृति, उनको उपशमित करके, द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि होता है । अथवा तीन करण पहले करके, दर्शनमोह की तीन प्रकृतियों को खिपाकर क्षय करके क्षायिक सम्यग्दृष्टि होता है । पुनश्च उसके अनंतर अंतर्मुहूर्त काल तक अप्रमत्त से प्रमत्त में, प्रमत्त से अप्रमत्त में हजारों बार गमनागमन करता है - पलटा करता है । पुनश्च उसके अनंतर समय- समय प्रति अनंतगुणी विशुद्धता की वृद्धि द्वारा वर्धान होता हुआ, चारित्रमोह की इक्कीस प्रकृतियों को उपशमाने में उद्यमवंत होता है । अथवा क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही चारित्रमोह की इक्कीस प्रकृति क्षपाने को उद्यमवंत होता है । भावार्थ – उपशम श्रेणी क्षायिक सम्यग्दृष्टि या द्वितीयोपशम सम्यग्दृष्टि दोनों ही चढ़ने को समर्थ हैं और क्षपक श्रेणी क्षायिक सम्यग्दृष्टि ही चढ़ने को समर्थ है । उपशम सम्यग्दृष्टि क्षपक श्रेणी नहीं चढ़ सकता । सो यह सातिशय अप्रमत्तसंयत, वह अनंतानुबंधी चतुष्क बिना इक्कीस प्रकृतिरूप चारित्रमोह को उपशमाने वा क्षय करने को कारणभूत जो तीन करण के परिणाम, उनमें से प्रथम अधःप्रवृत्तकरण को करता है; ऐसा जानना । |