
तारिसपरिणामट्ठियजीवा हु जिणेहिं गलियतिमिरेहिं
मोहस्सपुव्वकरणा, खवणुवसमणुज्जया भणिया ॥54॥
अन्वयार्थ : अज्ञान अन्धकार से सर्वथा रहित जिनेन्द्र-देव ने कहा है कि उक्त परिणामों को धारण करने वाले अपूर्व-करण गुणस्थानवर्ती जीव मोहनीय-कर्म की शेष प्रकृतियों का क्षपण अथवा उपशमन करने में उद्यत होते हैं ।
जीवतत्त्वप्रदीपिका