+ अनिवृत्ति-करण गुणस्थान -
एकम्हि कालसमये, संठाणादीहिं जह णिवट्टंति
ण णिवट्टंति तहावि य, परिणामेहिं मिहो जेहिं ॥56॥
होंति अणियट्टिणो ते, पडिसमयं जेस्सिमेक्कपरिणामा
विमलयरझाणहुयवहसिहाहिं णिद्दड्ढ कम्मवणा ॥57॥
अन्वयार्थ : अन्तमुर्हूर्त-मात्र अनिवृत्ति-करण के काल में से आदि या मध्य या अन्त के एक समयवर्ती अनेक जीवों में जिस-प्रकार शरीर की अवगाहना आदि बाह्य करणों से तथा ज्ञानावरणादिक कर्म के क्षयोपशमादि अन्तरम करणों से परस्पर में भेद पाया जाता है, उसप्रकार जिन परिणामों के निमित्त से परस्पर में भेद नहीं पाया जाता उनको अनिवृत्ति-करण कहते हैं । अनिवृत्ति-करण गुणस्थान का जितना काल है, उतने ही उसके परिणाम हैं इसलिये उसके काल के प्रत्येक समय में अनिवृत्ति-करण का एक ही परिणाम होता है तथा ये परिणाम अत्यन्त निमर्ल ध्यान-रूप अग्नि की शिखाओं की सहायता से कर्म-वन को भस्म कर देते हैं ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका