
णिस्सेसखीणमोहो, फलिहामलभायणुदयसमचित्तो
खीणकसाओ भण्णदि, णिग्गंथो वीङ्मरायेहिं ॥62॥
अन्वयार्थ : जिस निर्ग्रन्थ का चित्त मोहनीय-कर्म के सर्वथा क्षीण हो जाने से स्फटिक के निर्मल-पात्र में रखे हुए जल के समान निर्मल हो गया है उसको वीतराग देव ने क्षीण-कषाय नाम का बारहवें गुणस्थानवर्ती कहा है ।
जीवतत्त्वप्रदीपिका