+ सयोग केवली जिन (तेरहवाँ गुणस्थान) -
केवलणाणदिवायरकिरण-कलावप्पणासियण्णाणो
णवकेवललद्धुग्गम सुजणियपरमप्पववएसो ॥63॥
असहायणाणदंसणसहिओ इदि केवली हु जोगेण
जुत्तो ति सजोगजिणो, अणाइणिहणारिसे उत्तो ॥64॥
अन्वयार्थ : जिसका केवल-ज्ञान-रूपी सूर्य की अविभाग-प्रतिच्छेद-रूप किरणों के समूह से (उत्कृष्ट अनंतानन्त प्रमाण) अज्ञान-अन्धकार सर्वथा नष्ट हो गया हो और जिसको नव केवल-लब्धियों के (क्षायिक-सम्यक्त्व, चारित्र, ज्ञान, दर्शन, दान, लाभ, भोग, उपभोग, वीर्य) प्रकट होने से 'परमात्मा' यह व्यपदेश (संज्ञा) प्राप्त हो गया है, वह इन्द्रिय-आलोक आदि की अपेक्षा न रखने वाले ज्ञान-दर्शन से युक्त होने के कारण 'केवली' और योग से युक्त रहने के कारण 'सयोग' तथा घाति कर्मों से रहित होने के कारण 'जिन' कहा जाता है, ऐसा अनादि-निधन आर्ष आगम में कहा है ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका 




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