+ अयोग केवली जिन (चौदहवाँ) गुणस्थान -
सीलेसिं संपत्तो, णिरुद्धणिस्सेसआसवो जीवो
कम्परयविप्पमुक्को, गयजोगो केवली होदि ॥65॥
अन्वयार्थ : जो अठारह-हजार शील के भेदों का स्वामी हो चुका है और जिसके कर्मों के आने का द्वार रूप आस्रव सर्वथा बन्द हो गया है तथा सत्त्व और उदय-रूप अवस्था को प्राप्त कर्म-रूप रज
की सर्वथा निर्जरा होने से उस कर्म से सर्वथा मुक्त होने के सम्मुख है, उस योग-रहित केवली को चौदहवें गुणस्थानवर्ती अयोग केवली कहते हैं ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका