+ एक ही जीव की अपेक्षा गुणश्रेणी निर्जरा में विशेषता के १० स्थान -
सम्मत्तुप्पत्तीये, सावयविरदे अणंतकम्मंसे
दंसणमोहक्खवगे, कसायउवसामगे य उवसंते ॥66॥
खवगे य खीणमोहे, जिणेसु दव्वा असंखगुणिदकमा
तव्विवरीया काला, संखेज्जगुणक्कमा होंति ॥67॥
अन्वयार्थ : सम्यक्त्वोत्पत्ति अर्थात् सातिशय मिथ्यादृष्टि और सम्यग्दृष्टि, श्रावक, विरत, अनंतानुबन्धी कर्म का विसंयोजन करनेवाला, दर्शनमोहनीय कर्म का क्षय करनेवाला, कषायों का उपशम करने वाले ८-९-१०वें गुणस्थानवर्ती जीव, उपशान्तकषाय, कषायों का क्षपण करनेवाले ८-९-१०वें गुणस्थानवर्ती जीव, क्षीणमोह, सयोगी और अयोगी दोनों प्रकार के जिन, इन ग्यारह स्थानों में द्रव्य की अपेक्षा कर्मों की निर्जरा क्रम से असंख्यातगुणी-असंख्यातगुणी अधिक-अधिक होती जाती है और उसका काल इससे विपरीत है । क्रम से उत्तरोत्तर संख्यातगुणा-संख्यातगुणा हीन है ।

  जीवतत्त्वप्रदीपिका